Monday 27 October 2008

 

उल्लुओं का ठाठ


दीपावली आ गई है। पिछले वर्ष भी आई थी। न जाने कितने वर्षों से आ रही है। दीपावली आने का समय होता है तो कई दिनों पहले से ही खुसर-फुसर शुरू हो जाती है। माहौल से लगने लगता है कि दीपावली बस अब निकट ही है। लक्ष्मी के स्वागत के लिए लोग तैयार होने लगते हैं। हरेक व्यक्ति को लगता है कि बस इस बार दिवाली में लक्ष्मी की कृपा उसी पर होने वाली है। दिवाली आती है और चली जाती है। असंख्य लोगों को पता भी नहीं चलता कि कब आई और चली गई। लक्ष्मीजी की बाट जोहते ही रह जाते हैं लोग।


एक समय था जब व्यापारी खूब तैयारी करते थे। लक्ष्मी को रिझाने के हर संभव प्रयास होते थे परंतु अब तो व्यापारियों की स्कीमों का भी लक्ष्मीजी पर असर नहीं होता है। उल्लू पर सवार लक्ष्मीजी साइड से निकल जाती हैं। उल्लू भी अब होंशियार हो गया है। अब तो उल्लू का भी वश चले तो वह दूसरों को उल्लू बना दे। बना भी देता है। वह लक्ष्मीजी को लेकर जब चलता है तो सभी को लगता है कि वह उसी की तरफ आ रहा है। अच्छे-अच्छे पढ़े लिखे विद्वानों, समझदार-होंशियार व्यापारियों, बुध्दिमान उद्योगपतियों को धत्ता बताते हुए वह ऐसा खिसकता है कि पता भी नहीं चलता और ऐसे लल्लू के यहां ले जाकर लक्ष्मी मैया को उतारता है कि लल्लू खुद समझ नहीं पाता कि लक्ष्मी ने उसके यहां पधारने की कृपा क्या सोचकर की होगी? कहा भी तो है कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख। जिसने आशा नहीं की उसके यहां लक्ष्मी छप्पर फाड़कर आ जाती है और रोज देहरी धोकर जो लक्ष्मीजी के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं, वे ताकते रह जाते हैं, अगर उल्लू की कृपा ना हो। उल्लू किसके यहां आकर लक्ष्मी को उतारे, इसी पर तो सब निर्भर है।


वैसे तो उल्लू को बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है। उसे बेवकूफ या मूर्ख समझा जाता है। परंतु वास्तविकता इससे काफी अलग होती है। वह उल्लू इतना आसानी से किसी को भी उल्लू बना सकता है कि अगले को भनक भी नहीं लगे और जेब भी कट जाए। पिछले कई वर्षों से ऐसा ही हो रहा है। हर वर्ष लोग सोचते हैं कि इस बार दिवाली में वारे-न्यारे हो जाएंगे। दुकानदार जमकर माल खरीदी करते हैं, बेचने के लिए। सोचते हैं पांचों अंगुलियां घी में होंगी। अपनी ताकत से ज्यादा खरीदी करते हैं। फिर पूरी ताकत लगा देते हैं बेचने में, परंतु बिकता नहीं। बन गए न उल्लू? सोचते हैं लक्ष्मीजी इस बार आएंगी तो पैर पकड़कर बैठ जाएंगे, छोड़ेंगे ही नहीं, परंतु लक्ष्मी वाहन उल्लू उन्हें 'बाई पास' ले जाता है। आए ही नहीं तो पकड़ोगे किसको?


अब तो लोगों को उल्लू से भीर् ईष्या होने लगी है। इसके लिए लक्ष्मीजी को तो दोष दे नहीं सकते। उनको दोष देने के लिए हिम्मत भी तो चाहिए। खामखां नाराज हो जाएं तो लेने के देने पड़ जाएं। इसलिए लक्ष्मीजी की बजाय लोग उनके वाहन उल्लू सेर् ईष्या करते हैं। आदमी का भी दोष नहीं है। जब व्यक्ति उल्लू के ठाठ-बाट देखता है तो स्वतःर् ईष्या होने लगती है। जीवन के हर मोड़ पर आदमी देखता है कि उसका उल्लुओं से पाला पड़ रहा है। वह देखता है उल्लुओं के ठाठ-बाट, उल्लुओं की रईसी, उनकी सुख-सुविधाएं। यह सब देखकर लोग अपने आप को उल्लू कहलाने को भी तैयार हैं।


उल्लू लक्ष्मी मैया को चला रहा है। उल्लुओं का राजनीति में प्रवेश हो गया है। अब उल्लू देश को चलाने में सहयोग कर रहे हैं। उल्लू क्योंकि लक्ष्मीजी को ढोए चल रहे हैं, इसीलिए उनकी तूती बोल रही है। उल्लू सभा संगठनों में घुस गए हैं। आता-जाता कुछ नहीं हो तब भी पतवार थाम लेते हैं। नैया पार लगे या नहीं, परंतु छोड़ेंगे नहीं। उल्लू बड़े-बड़े संस्थानों में प्रवेश कर गए हैं। उल्लुओं का साम्राज्य सर्वत्र व्याप्त है। अच्छी-अच्छी हस्तियां उल्लुओं के द्वार पर खड़ी गिड़गिड़ाती नजर आती हैं। नजरें इनायत करने की गुहार करती फिरती हैं।


देश की राजनीति में उल्लुओं की जमात मालपुए खा रही हैं। जिधर मालपुए मिलते हैं उधर ही यह जमात अपना रुख कर लेती है। दूसरी ओर आम आदमी को रोटी के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि उल्लू और लक्ष्मी का चोली दामन का साथ है। भले ही उल्लू लक्ष्मी की सवारी ही क्यों न हो पर बिना उल्लू के लक्ष्मीजी एक कदम भी कहां चलती हैं? इसलिए भाई साहब, उल्लू को सम्मानजनक नजर से देखना चाहिए। लक्ष्मी मैया ने उल्लू को अपना वाहन बनाया तो कुछ सोच समझकर ही बनाया होगा।

 

केवल रस्म अदायगी न हो

दीपावली पर्व हर वर्ष आता है और चला जाता है परन्तु यह हमारे दिलों पर कितना और कैसा प्रभाव छोड़ पाता है, यह एक विचारणी प्रश्न है। बुराई पर भलाई, असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म एवं अंधकार पर प्रकाश की विजय के इस पर्व के प्रति आम आदमी, जिसे भारत का बहुसंख्यक समाज कहा जा सकता है, की रुचि वर्ष दर वर्ष कहीं कम तो नहीं होती जा रही है, और यदि ऐसा हो रहा है तो इसके कारण क्या हैं, इस पर भी गौर करने की जरूरत है। क्योंकि यदि ऐसा ही होता रहा तो केवल दीपावली ही नहीं बल्कि सदियों से मनाए जाने वाले और हमारे जीवन से जुड़े अनेक महत्त्वपूर्ण त्यौहार केवल रस्म अदायगी बनकर रह जाएंगे, एक अनिवार्य औपचारिकता के अलावा इनमें किसी की कोई रुचि नहीं रह जाएगी। कोई माने या ना माने परन्तु यह कटु सत्य है कि कोई भी पर्व तभी सार्थक होता है जब वह सर्वहारा समाज की धड़कन बनने में कामयाब हो सके। सर्वहारा समाज से तात्पर्य है उस आम आदमी से है, जिसके बिना हमारे देश की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

दीपावली धन की देवी लक्ष्मी का पर्व है। इस दिन सभी लोग धन-धान्य से लबालब होने की, सम्पूर्ण समृध्दि की कामना करते हैं परन्तु क्या कभी सभी की कामनाएं पूरी हो पाती हैं? यदि ऐसा होता तो फिर कहना ही क्या। यह विडंबना ही है कि आज भी भारत का बहुसंख्यक समाज दीपावली पर्व को अपनी इच्छा के अनुसार नहीं मना पाता है। आजादी के छह दशकों के बाद भी आम आदमी की हालत गर्व करने लायक तो दूर, संतोष करने योग्य भी नहीं है।

वैश्वीकरण का दौर आया, अर्थनीति में परिवर्तन हुए, नई आशाएं जगीं और लगा कि बस अब चमत्कार होने वाला है परन्तु पिछले एक डेढ़ दशक में आर्थिक एवं औद्योगिक नीतियों में हुए परिवर्तनों पर नजर डालें तो महसूस होगा कि पहले से ही समर्थ और समृध्द समाज और अधिक शक्तिशाली हो गया है तथा जो कमजोर थे वे बिल्कुल शक्तिविहीन हो गए हैं। एक तरफ उपभोक्ता बाजार में नई से नई चीजें आ रही हैं, महंगी से महंगी जीवन सुविधाएं खरीदी जा रही हैं, इससे देश की समृध्दता झलकती दिखती है वहीं दूसरी तरफ आम आदमी जीवन की जरूरतों की पूर्ति के लिए भी तड़प रहा है, ऐसे में कैसा प्रकाश पर्व?

यह तो बात हुई केवल आर्थिक पक्ष की। असत्य पर सत्य की, अधर्म पर धर्म की विजय वाली बात भी कितनी सार्थक दिखती है? आजादी के इतने वर्षों में हमने सबसे ज्यादा प्रगति भ्रष्टाचार के क्षेत्र में की है। भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीना भी हराम कर दिया है और राजनीति से तो यह नीति को दूर करने में भी सफल रहा है। धर्म की ओर आदमी शांति की अपेक्षा के साथ आकर्षित होता है परन्तु धर्म को भी लोगों ने व्यापार बनाना शुरू कर दिया है। धर्म की दुकानें खुलने लगी हैं, धर्म अशांति का कारण बनने लगा है। ऐसी स्थिति में अधर्म पर धर्म की विजय भी बेमानी लगने लगती है और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे सम्पूर्ण जीवन तंत्र में असत्य पर सत्य की विजय का कथन भी हास्यास्पद लगता है।

हां, अंधेरे पर प्रकाश की विजय की बात अभी भी फलीभूत हो सकती है, मगर यह काम सामूहिक भावना से ही संभव है। जो अत्यधिक निर्धन हैं, जो अत्यधिक अभावों से ग्रस्त हैं, जो स्वप्न में भी सुखों की कल्पना करने में समर्थ नहीं है, जिनके लिए पर्व सामान्य दिनों से भी ज्यादा कष्टदायक है, जो त्यौहारों को ही क्या, जीवन को ही एक रस्म अदायगी की तरह जी रहे हैं, ऐसे लोगों की किसी न किसी रूप से, अपनी सामर्थ्य के अनुसार, वे लोग जो कुछ कर सकते हैं, यदि मदद करें तो अंधेरे पर प्रकाश की विजय का कथन सार्थक सिध्द हो सकता है। यह जरूर है कि हर समर्थ व्यक्ति के दिल में जब तक यह भाव जागृत नहीं होगी कि स्वयं के लिए त्यौहारों की चमक-दमक, धूम-धड़ाका और चहल-पहल ही असली त्यौहारों का आनन्द नहीं है बल्कि अभावग्रस्तों के होठों पर थोड़ी सी मुस्कुराहट लाने में कामयाब होना पर्वों की असली सार्थकता है, तब तक त्यौहार चाहे बड़े हों या छोटे, उनको मनाना मजह रस्म अदायगी ही है।


Wednesday 22 October 2008

 

... दौड़ जारी है


प्रतिस्पध्र्दा का जमाना है। धीरे-धीरे चलने से काम नहीं चल सकता। धीरे चलने मेें दूसरों से पिछड़ जाने की आशंका हमेशा बनी रहती है। इसलिए धीरे कौन चलना चाहेगा? बात भी सही है। इसलिए हर कोई जल्दबाजी में है। इतनी जल्दबाजी में, कि सोच भी नहीं पा रहे कि क्या इतनी जल्दबाजी जरूरी है?

मुझे दो घटनाएं ध्यान आती हैंजो कहीं पढ़ी थी। बड़ी रोचक हैं। एक बार एक आदमी घोड़े पर बैठा तेजी से भागा जा रहा था। पहचानने वाले कुछ लोगों ने रास्ते में उसे टोका - 'क्यों भाई, कहां जा रहे हो, क्या हो गया? लेकिन उसने कहा, अभी समय नहीं है, जल्दी में हूं, बाद में बताऊंगा। घोड़े को दौड़ाते हुए निकल गया। करीब दो घंटे बाद वापस लौटा तो थका हुआ था, उदास था। वही लोग मिल गए। उन्होंने उससे पूछा, 'मामला क्या था, इतनी जल्दी क्या थी, बात ही नहीं सुन रहे थे, कहां जा रहे थे ? उसने कहा कि दरअसल मैं अपने घोड़े को खोजने जा रहा था और इतनी जल्दी में था कि यही भूल गया कि मैं उसी घोड़े पर बैठा हुआ हूं।

दूसरी घटना, एक महानगर की किसी बहुमंजिली इमारत में आग लग गई। कम से कम बीस मंजिली रिहायशी इमारत थी। आग लग गई तो बिल्डिंग में भगदड़ मच गई। लोग इधर-उधर भागने लगे। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल बन गया। आग की लपटें बढ़ती जा रही थीं और लोग सीढ़ियों से, लिफ्ट से, जैसे भी संभव था, बाहर भाग रहे थे। थोड़ी देर में पूरी इमारत खाली हो गई। भीड़ नीचे खड़ी नजारा देख रही थी। एक महाशय आराम से टहलते हुए इमारत से बाहर आए। उन्होंने भीड़ की ओर मुखातिब होकर कहा, 'अजीब लोग हैं आप। इमारत में आग क्या लग गई, आसमान सिर पर उठा लिया। अफरा-तफरी मचा दी। इतना भी क्या डर, ऐसी भी क्या घबराहट? एक मुझे देखिए, जब पता चला कि भवन में आग लग गई है तब मैं चाय पी रहा था। मैंने चाय पूरी की। टाई वगैरह लगाई, सिगार सुलगाया और फिर आराम से सीढियों से उतरते हुए यहां पहुंचा हूं, कोई घबराहट नहीं, आखिर हम लोग मर्द हैं।'

श्रीमानजी जब अपनी शेखी बघार रहे थे तब लोग मंद-मंद मुस्कुरा भी रहे थे परंतु उनको बीच में किसी ने नहीं टोका। बात खत्म होने के बाद भीड़ में से एक सज्जन ने जोर से कहा, आपकी बहादुरी तो तारीफ के काबिल है परंतु श्रीमानजी आपने कोट और टाई के नीचे पजामा क्यों पहन रखा है? यह सुनकर उन महाशय के होश उड़ गए। बहादुरी धरी रह गई। दरअसल जो पायजामा रात को पहनकर सोए थे हड़बड़ाहट में वही पहने आ गए, पैंट पहनना भूल गए परंतु टाई लगाना नहीं भूले, क्योंकि बहादुरी दिखानी थी।

इस प्रकार अपनी इस दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक वे, जो इतनी जल्दी में है कि होश गंवा बैठे हैं। उन्हें यह भी पता नहीं है कि वे कहा हैं, कर क्या रहे हैं, किस दौड़ में शामिल हैं, किस गति से जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं, जहां जा रहे हैं वहां पहुंचेंगे भी या नहीं। उन्हें कुछ पता नहीं है। होश में होते हुए बेहोश हैं। बस दौड़ रहे हैं। घबराहट है, हड़बड़ाहट है।

दूसरे वे, जो मानने को भी तैयार नहीं हैं कि वे जल्दबाजी में हैं। अंधाधुंध दौड़ में शामिल हैं। आज अंदर से खोखले, कमजोर घबराए हुए चिंतित ऐसे लोगों की भरमार है जो ऊपर से बहादुर, निश्चिंत, सहज दिखने का ढोंग करते हैं और अंदर से तिलमिला रहे हैं, छटपटा रहे हैं, कुंठित हैं, कंपकंपा रहे हैं। घबराहट में उल्टे-सीधे कदम उठा रहे हैं, नीचता पर उतारू हैं, कुछ भी करने को आमादा हैं। अपने आप ही किसी को दुश्मन, प्रतिद्वंद्वी, विरोधी मान बैठते हैं। अपनी बनाई धारणाओं के मकड़जाल में उलझे रहते हैं, घुटते रहते हैं परंतु झूठे दंभ के कारण दर्शाते ऐसा हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं।  होश खो बैठे हैं परंतु मानने को तैयार नहीं। हाेंशियार होने का दंभ भर रहे हैं। दूसरे के सामने प्रदर्शित कर रहे हैं कि वे उनकी बजाय ज्यादा दुरुस्त हैं, ज्यादा समझदार हैं। जबकि असलियत कुछ और ही है। सभी एक ही दौड़ में शामिल हैं। दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़। फिर वह चाहे अधिक धन कमाने की दौड़ हो या राजनीतिक पद पाने की, अधिक धनी दिखने की लालसा हो या सामाजिक संगठन में ऊंचा दिखने की। यह अजीबोगरीब दौड़ है जिसमें हर कोई दौड़ रहा है।

जो व्यक्ति धन के पीछे दौड़ रहा है, उसे केवल धन दिखाई दे रहा है, वह उसे पाने को आतुर है, उसी घुड़सवार की तरह जी-जान लगा रहा है। किसी भी तरह से बस मनोकामना पूरी करनी है। इसके लिए वह किसी भी रास्ते से जाने को तैयार है। रास्ता नैतिक है या नहीं, उचित है अथवा अनुचित, इसकी परवाह नहीं। बस लक्ष्य पर पहुंचना ही है। कैसे भी पहुंचे। वह दौड़ता चला जा रहा है। रिश्ते-नाते, नैतिकता, ईमानदारी सब कुछ भूल रहा है। पीछे सब कुछ छूट रहा है परंतु वह घोड़े पर सवार है। जल्दी में है, किसी से बात करने को तैयार नहीं।

कमाने वाला ही नहीं, खर्च करने वाला भी दौड़ में है। जिसने कल किसी शादी, विवाह, मायरा, दशोटन, तिलक, गृहप्रवेश, शादी की वर्षगांठ, जन्मदिन के कार्यक्रम में खर्च किया, आज उसके पड़ोसी या उसके संबंधी या उसके सम-व्यवसायी के यहां वैसा ही कार्यक्रम है तो वह उससे कहीं ज्यादा खर्च करेगा। ऐसा करना उसके लिए जरूरी है, मजबूरी है। क्योंकि वह उस दौड़ में शामिल है। यदि ऐसा नहीं करेगा तो वह दौड़ से बाहर हो जाएगा। कमाने के लिए प्रतिस्पध्र्दा  है तो खर्च करने के लिए भी वही दौड़ है, होड़ है।

पद प्राप्ति में भी इस दौड़ का बोलबोला है। पद राजनीतिक क्षेत्र का हो या किसी संगठन का। पद तो पद ही होता है। जब हर क्षेत्र में दौड़ है तो फिर पद के लिए क्यों न हो? पदों की दौड़ तो ऐसी है कि एक दूसरे को टंगड़ी मारकर आगे निकलने में भी कोई झिझक नहीं होती। अपनों को दगा देना पड़े तो उससे भी परहेज नहीं। आज इनसे मतलब निकल रहा है तो इनकी चंपी कर रहे हैं, कल उनकी जरूरत महसूस हुई तो उनके गले लग गए। कोई शर्मीन्दगी नहीं। कोई अफसोस नहीं। पदों की दौड़ मित्रों से दूर कर देती है, रिश्तों  में दरारें पैदा कर देती है, हितैषियों को दुश्मन बना देती है, नैतिकता का गला घोंट देती है। मजे की बात तो यह है कि इतना होने के बावजूद भी व्यक्ति को इसका एहसास नहीं होता। वह अपने आपको दुरुस्त समझता है।

इस प्रकार दोनों तरह के लोग दौड़ में शामिल हैं। एक वे जो बेतहासा दौड़ तो रहे हैं परंतु उन्हें मालूम नहीं है कि वे कहां जा रहे हैं, बस दौड़े जा रहे हैं, मशगूल हैं। दूसरे वे, जिन्हें पता है कि वे दौड़े जा रहे हैं, व्यर्थ की दौड़ में शामिल हैं  फिर भी स्वीकार करने को तैयार नहीं, वे अपने आपको ज्यादा समझदार मानने वाले हैं। बहरहाल, दौड़ जारी है।


Monday 20 October 2008

 

संकीर्ण सोच


आदमी भी अद्भुत जीव है। प्रभु ने इतनी विशाल सृष्टि की और एक प्रमुख काम किया कि मनुष्यों में वैचारिक भिन्नता के बीज बो दिए। बस, इसके बाद बाकी काम अपने आप हो गए। अपने चारों ओर देखिए, जो भी विसंगतियां दिखाई देंगी वे सब मनुष्य जाति में वैचारिक भिन्नता के परिणाम स्वरूप हैं।

विचार, व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्धारण करते हैं। विचार सरल हो सकते हैं, उदार हो सकते हैं, तटस्थ हो सकते हैं, संकीर्ण हो सकते हैं। विचारों में परिवर्तन  भी होता रहता है परंतु जिनके विचार संकीर्ण हों उनमें परिवर्तन के दर्शन होना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। कई बार तो संकीर्ण विचारों वाले व्यक्ति में परिवर्तन के प्रयास उसके विचारों को और अधिक संकुचित कर देते हैं। अन्य विचारधारा के लोग संकुचित विचारों के व्यक्ति को कोसते हैं, उसको दोष देते हैं परंतु कारणों की गहराई में नहीं जाते। दरअसल पूरा दोष उस व्यक्ति का नहीं होता। काफी हद तक उसकी संगत, उसकी उठ-बैठ, आसपास का माहौल आदि उसकी संकुचित मनोवृत्ति का कारण होते हैं। अच्छे विचारोंवाला व्यक्ति भी जब संकीर्ण विचारों के लोगों के बीच ज्यादा समय बिताने लगे तो उस पर भी संगत का असर पड़ने लगता है। उसकी सोच संकुचित हो जाती है। कुएं के मेंढक को पता ही नहीं होता कि कुएं से बाहर भी कोई दुनिया होती है। उसे बाहर का कोई रास्ता मालूम नहीं होता। वह सोच भी नहीं सकता कि बाहर जाया भी जा सकता है। उसकी सोच सीमित होती है। संकुचित होती है। कुएं के मेंढक एक चार दीवारी में कैद होते हैं, जैसे कैदी कारागृह में रहते हैं। 

कहते हैं एक देश में बहुत वर्षों से लोग एक बड़ी जेल में बंद थे। उनमें अनेक तो जघन्य अपराधी थे। कोई बीस वर्षों से बंद था, कोई पचास वर्षों से बंद था। अनेक कैदी तो केद में ही मर भी गए। जो थे वे अंधेरी कोठरियों में पड़े रहते। प्रकाश की किरण उन्होंने देखी नहीं। जेल इस प्रकार बनी थी कि न आसमान दिखाई देता था, न कभी सूर्य के दर्शन होते थे, बस हमेशा एक जैसा ही वातावरण। कैदी मिलते तो बस एक दूसरे को अपने अपराधों के कारनामे सुनाते। इसके अलावा करते भी क्या? बाहरी दुनिया से उनका कोई वास्ता नहीं रह गया था।

एक बार देश में भारी क्रांति आई। क्रांतिकारियों ने जेल के दरवाजे भी तोड़ दिए। कैदियों को मुक्त कर दिया ताकि कैदी भाग निकलें लेकिन कैदियों ने बड़ी नाराजगी दिखाई। वे बाहर नहीं जाना चाहते थे। उनको अंदर रहने की आदत पड़ गई थी। बाहर के लोगों से उनको कोई संबंध नहीं था। परंतु क्रांतिकारियों ने उन्हें जबरन बाहर निकाल दिया, बोले, अब तुम स्वतंत्र हो, स्वच्छंद वातावरण में विचरण करो। खुली हवा के झौंकों का आनंद लो, सूर्य की किरणों की गर्माहट का एहसास प्राप्त करो, नीले नभ को निहारो और दुनिया को देखो, कितनी बड़ी है।

कैदियों को जेल से निकाल तो दिया गया परंतु रात होने से पहले ही उनमें से आधे से ज्यादा कैदी वापस लौट आए और उन्होंने कहा, हमें अपनी कोठरियां ही चाहिएं, हमें नहीं चाहिए खुली हवा, हमें कोई सरोकार नहीं इस बाकी की दुनिया से, हम तो अपनी कैद में ही भले हैं। हमारे विचारों का, हमारी बातों का इन बाहर वालों से कोई तालमेल ही नहीं बैठ रहा है। न तो हमारी समझ में इनकी बातें आ रही हैं और न ही हम जो अभिव्यक्त करना चाहते हैं उसको ये समझ पा रहे हैं। हम तो अपनी कोठरी में ही अच्छे हैं। कैदी एक बार कारागार में रह गया तो बार-बार वहीं लौटकर आता है। उसे बाहर अच्छा नहीं लगता। उसकी असली दुनिया उस कारागृह के अंदर है, असली परिवार अंदर है, मित्र परिचित अंदर हैं। 

इसी प्रकार जो संकुचित सोच के लोग हैं उनका अपनी ही सोच वाले लोगों में मन लगता है। संकीर्ण विचारों का व्यक्ति कभी उदारवादी लोगों के बीच में बैठ जाए तो 'अन इजी' महसूस करने लगता है। दौड़कर अपने दड़बे में ही जाना चाहता है। कैद में हमेशा संकीर्णता रहती है। उदारता के लिए कैद नहीं है, उदारता स्वच्छंद है। सीमाएं संकीर्णता के लिए हैं, उदारता में तो सबका स्वागत है। वह सबके लिए है, सब उसके लिए हैं। उदारता सबको पसंद नहीं आती। संकीर्ण सोच के व्यक्ति को उदार विचारों के लोगों के बीच घुटन महसूस होती है। उन्हें अपनी ही सोच श्रेष्ठ लगती है। वे अपनी सोच का दायरा बना लेते हैं। तर्क गढ़ लेते हैं। आपकी बातें, आपकी सलाह उनके विचारों की सीमा में बैठती है तो आप उनके मित्र, अन्यथा वे आपको दुश्मन मान लेते हैं। आप उनके लिए किसी दूसरी दुनिया के अजूबे होते हैं। संकीर्ण या संकुचित विचारों को क्रांति से नहीं बदला जा सकता। ये धीरे-धीरे बदलते हैं। ठोकरें खाने से बदलते हैं।


Saturday 18 October 2008

 

सम्मोहन का सेतु


वीणा के तार यदि ढीले हो जाएं तो उससे कैसे स्वर निकलेंगे, यह कोई भी समझ सकता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य के जीवन को सुन्दर स्वर देने वाले सम्मोहन के तारों को ढीला छोड दिया जाए तो उसके जीवन संगीत की भी वही दशा होनी है जो ढीले तारों वाली वीणा से निकले संगीत की होती है। इसका कारण यह है कि सम्मोहन वह शक्ति है, वह कला ंहै जो मनुष्य के जीवन के सुरों को माधुर्य प्रदान करती है। दरअसल सम्मोहन क्या है यह तो ठीक से कोई दर्शन शास्त्र का ज्ञाता ही बता सकता है परन्तु मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि हम जो कुछ ंहैं, जो कुछ भी कर रहे हैं वह हमारी चित्त दशा है जिसे दूसरे शब्दों में सम्मोहन कहा जा सकता है। इसे और बोलचाल की भाषा में माया भी कहा जा सकता है। माया से वशीभूत होकर ही लोगों द्वारा जगत का निर्माण हुआ है और यह जगत पूरी जादूगरी है। कोई भी दार्शनिक शायद इस बात को इसी प्रकार से परिभाषित करेगा।

हमारे मन में किसी भी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति प्रगाढ भाव पैदा हो जाता है उसे सम्मोहन की ही संज्ञा दी जाएगी। यों तो यह गहन अध्ययन और चिंतन का विषय है परन्तु ऊपरी तौर पर भी इस मुद्दे पर ष्टिपात करें तो हमें कुछ न कुछ इससे हासिल हो सकता है।

सरल तरीके से सम्मोहन की बात करते हैं। जब बच्चा पैदा होता है तो उसे कुछ पता नहीं होता कि उसका पिता कौन है, उसकी मां कौन है, घर परिवार में दादा-दादी, चाचा-ताऊ, भाई-बहिन कौन हैं। धीरे-धीरे उनके प्रति सम्मोहन के कारण वह सब कुछ समझता सीखता चला जाता है। अपने आप उसके मन के तार अपने माता-पिता व अन्य रिश्तेदारों से जुडने लगते हैं। यह तार सम्मोहन के तार होते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि यदि किसी बच्चे को कोई तकलीफ हो तो उसकी मां को उसका अहसास सैकडाें मील दूर रहते हुए भी हो जाता है क्योंकि बच्चे से मां का गहरा सम्मोहन होता है। हमने पुरानी फिल्मों में ऐसी कितनी ही कहानियां देखी हैं। आपने भी फिल्मों में, टीवी पर धारावाहिकों में, किताबों में ऐसी कहानियां देखी और पढी होंगी। ऐसा नहीं है कि इनमें असत्यता ही हो, कुछ काल्पनिक भी हो सकती हैं परन्तु बहुत से जानकारों ने तो इस मामले में प्रयोग भी करके देखे हैं। हम भी अपने दैनंदिन जीवन में इस सम्मोहन की अनुभूति करते हैं इसलिए इसकी विश्वनीयता पर भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता।

सम्मोहन से संबंधित एक तर्क किसी दार्शनिक के साहित्य में पढने को मिला था। बात में मुझे भी दम लगा। एक महिला कहीं मर जाए तो किसी व्यक्ति को उससे कोई पीडा नहीं होगी। ऐसी सैकडाें मौतें होती हैं। परन्तु यदि किसी व्यक्ति का विवाह हो गया, सात फेरे ले लिए, बैंड बाजे के साथ धूमधाम से बारात की आव भगत हुई, पंडित-पुरोहितों ने मंत्रोच्चारण किए, आशीर्वाद समारोह आयोजित हुआ और वही महिला एक सामान्य औरत की बजाय अब किसी की पत्नी हो गई। अब यदि वह मर जाती है तो व्यक्ति, यानी कि उसका पति छाती पीट-पीट कर रोता है क्योंकि अब वह महिला नहीं रह गई, पत्नी हो गई। अब वह सम्मोहन के सूत्र में बंध गई। यह बात अलग हो सकती है कि इस सम्मोहन को स्थापित करने में फेरों से लेकर आशीर्वाद समारोह तक के सभी कार्यक्रमों, गतिविधियों की अहम भूमिका होती हो परन्तु इस सम्मोहन के कारण ही एक व्यक्ति और एक महिला के बीच ऐसा बंधन बंध जाता है कि एक की हानि से दूसरे को कष्ट पहुंचता है। यह नहीं कहा जाना चाहिए कि सम्मोहन का तार केवल मां-बेटे के बीच में होता है। पति-पत्नी का उदाहरण ऊपर दिया ही है। इसी प्रकार मित्रों, रिश्तेदारों के बीच में भी यह सम्मोहन का जादू काम करता है। जहां भी संबंधों में निकटता है, मधुरता है, वहीं सम्मोहन का सेतु कायम है, तार बंधा हुआ है। जहां संबंधों में सम्मोहन कम हो रहा है वहीं रिश्ता में कटुता पैदा होने लगी है।

पहले यह बीमारी पश्चिमी देशों में ही थी। उधर से ही शुरुआत हुई। या तो वहां सम्मोहन था ही नहीं या फिर था तो जल्दी ही कम होने लगा और उसके परिणाम सामने आने लगे पिता-पुत्र के बीच झगडाें के रूप में, पति-पत्नी के बीच तलाक के रूप में, घनिष्ठ मित्रों के बीच हत्याओं की घटनाओं के रूप में। पूरब के देशों में एक पारिवारिक सम्मोहन था। अब उस सम्मोहन के तार ढीले होते दिखाई दे रहे हैं। पश्चिम के देशों में पिता पिट रहा हो तो बेटा उसे बचाने का तत्काल प्रयास नहंीं करता है। वह पहले सोचता है कि वास्तव में गलती किसकी है, बाप की या पीटने वाले की। बाप अपनी गलती के कारण पिट रहा हो तो बेटा उसे पिटने देता है, बचाता नहीं। हमारे देश में ऐसा भाव नहीं था। पिता-पुत्र के सम्मोहन के तार इस कदर जुडे रहते थे कि बाप की अगर गलती भी हो तब भी उसकी ओर कोई आंख उठाकर देखे तो बेटा अपनी जान देने को भी उतारू रहता था। मजाल है कि  कोई बेटे के रहते हुए बाप को पीट दे।

  आज भी सम्मोहन के ये तार हमारे देश के लोगों में पूरी तरह से टूटे तो नहीं हैं परन्तु ढीले अवश्य पड ग़ए हैं। पिता-पुत्र के बीच तकरार, पति-पत्नी के बीच तलाक, भाई-भाई के बीच अविश्वास आदि के तेजी से पनपने का कारण ही ंहै कि इन रिश्तों के बीच जो सम्मोहन का सेतु है वह कमजोर हुआ है। सम्मोहन के तारों के ढीले होते चले जाने से भविष्य में हालात क्या होंगे, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है। आने वाले कुछ वर्षों में यदि पूरी तरह से पश्चिमी देशों का सा माहौल हमारे यहां भी निर्मित हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि यदि अंधी गुफा की ओर जाने वाली पगडंडी पर हम बढ चले हों और रास्ते में भी हम अपने दिमाग पर जोर नहीं डालें कि हम जिस रास्ते पर चल रहे ंहैं वह हमें कहां ले जाएगा, वह रास्ता हमारे लिए सही है या नहीं, उस पर और आगे बढने में हमारी भलाई है या नहीं, रास्ता बीच में छोड क़ोई दूसरी पगडंडी जो प्रकाश की ओर ले जाए उसको पकडना है  या नहीं, तब तो वह रास्ता उस अंधकूप तक ले ही जाएगा जहां तक ले जाने के लिए वह बना है। सोचना तो व्यक्ति को है कि जन्म के साथ ही जिस सम्मोहन के तारों ने जीवन को मधुर संगीत देने की शुरुआत की उसे ही छोड देना कहां की बुध्दिमानी है। जीवन के संगीत को सही ढंग से झंकृत करना है तो संबंधों के बीच ढीले होते सम्मोहन के तारों को कसना जरूरी है और इस कार्य के लिए परिस्थितियों के बिगडने का इंतजार नहीं करना चाहिए बल्कि तत्काल यह कार्य करना चाहिए। एक अच्छा संगीतज्ञ, एक अच्छा कलाकार तो अपने वाद्य के तारों को हमेशा दुरुस्त ही रखता है।

 


Sunday 12 October 2008

 

नासमझ लोग

मैंने कभी एक दृष्टांत सुना था या कहीं पढ़ा था, उसी से बात प्रारंभ करना चाहूंगा। अमेरिका का कोई नामी व्यक्ति थालॉरेंस। वह था तो अमेरिकी परन्तु रहा हमेशा अरब देश में। उसे मरुस्थल अच्छे लगते थे। वह अरब के लोगों से इतना घुल मिल गया कि सब कुछ, यानी कि दुख-सुख उन्हीं के साथ बांटता था। एक बार वह अपने 10-12 अरबी दोस्तों को लेकर पेरिस गया। वहां कोई विश्वस्तरीय प्रदर्शनी लगी थी, वह उन्हें दिखाने ले गया । वे सब एक बड़े होटल में ठहरे। फाइव स्टार होटल होगा। सूखे देश अरब के लोगों ने इस तरह भरपूर पानी कहीं देखा नहीं था। वे बाथरूम में घुसते तो नहाते ही रहते। पानी का भरपूर आनन्द उठाते। प्रदर्शनी में भी उनको खास दिलचस्पी नहीं थी बस जल्दी जल्दी होटल आते और नहाने लगते। यहां तक कि तीन दिनों में उन्होंने अधिकांश समय बाथरूम में ही बिताया।  वापसी का समय आ गया। रेलवे स्टेशन जाने के लिए गाड़ियां नीचे लग गई, सामान लद गया परन्तु लारेंस के अरब वाले वे दोस्त नीचे नहीं आए। उसने देखा माजरा क्या है, उधर गाड़ी छूट जाएगी और इधर ये लोग अभी तैयार होकर नहीं आएहैं । वह उल्टे पांव कमरे की तरफ दौड़ा। उसने होटल के कमरे में जाकर देखा तो वे सभी मित्र बाथरूम की टोंटियां खोल खोल कर अपने बैग में भर रहे थे। उसने उनको पूछा यह क्या कर रहे हो,  तो मित्रों ने बताया कि उन्हें पानी में नहा नहा कर बड़ा आनन्द आया, इसलिए अपने साथ ही टोंटियां(नल) खोलकर अपने घर ले जाना चाहते हैं ताकि घर पर भी खूब पानी का आनन्द उठा सकें। बेचारे ने इन दोस्तों की बात सुनकर अपना माथा ठोंक लिया। ऐसे नासमझ लोगों को कैसे समझाया जा सकता है कि पानी टोंटी में से आता जरूर है परंतु टोंटी में पैदा नहीं होता, वह उसका स्त्रोत नहीं है।

नासमझ लोग ऐसा ही करते हैं, समझने का प्रयास भी नहीं करते। कोई समझाए भी तो उसको बेवकूफ समझते हैं। दुनिया का कोई पागल अपने आपको कभी पागल नहीं मानता। वह उसी को पागल बताता है जो उसे पागलखाने में भर्ती कराने जाता है या इलाज  कराने जाता है। बेवकूफ को बेवकूफ कहो तो उसको करंट लगता है परंतु नासमझ कहने से बात उतनी नहीं बिगड़ती, इसलिए हमेशा इस शब्द का ही इस्तेमाल करना चाहिए। बेवकूफ कहने से नामसझ कहना अच्छा है। थोड़ा 'सम्मानजनक' शब्द है।

नासमझ आदमी के हाथ कुछ लग जाए तो वह उन अरब के लोगों की तरह ही करने लगता है। जल्दी जल्दी बटोर कर बैग में भरने लगता है। वह यह भी नहीं समझ पाता कि लोग उसकी नासमझी पर हंस रहे हैं, चुटकियां ले रहे हैं। बंदर के हाथ में उस्तरा दे दें तो वह उसको ऐसे घुमाने लगता है कि थोड़ी देर बाद उसके स्वयं के शरीर पर भी घाव हो जाते हैं परन्तु उस्तरा हाथ में आ ही गया तो उसका भी क्या दोष है? उपयोग करना नहीं आता यह तो उसकी नासमझी के कारण नहीं आता।

दुनिया में ऐसे ऐसे नासमझ लोग भी आपको मिल जाएंगे जो घर फूंक कर तमाशा देखने से नहीं हिचकिचाते। अपनी जेब से हजारों रुपए केवल इसलिए खर्च कर देंगे कि दूसरा व्यक्ति जलकर राख हो जाए भले ही अगले व्यक्ति की उसके कृत्य पर नजर ही न पड़े। कभी कभी ऐसे नासमझ व्यक्ति की यदि समझ वाली कोई नाड़ी जागृत होने भी लगे तो उसके इर्द-गिर्द रहने वाले लोग उस नाड़ी को काट देते हैं और उसे अनाड़ी ही बना रहने को बाध्य कर देते हैं।

नासमझ आदमियों के कोई एक-दो प्रकार नहीं होते। ये तो विस्तृत रैंज  में मिलते हैं । तरह-तरह की वैराइटी में मिलते हैं। कुछ अपना कामधंधा छोड़कर झूठी चौधराहट में संलग्न  रहते हैं, कुछ ऐसे होते हैं जो धूर्तों द्वारा बार बार गिर कर घुटने फुड़वाने के बाद भी समझ नहीं पाते। बहुत से नासमझ ऐसे होते हैं जो नासमझों के सरदार बन जाते हैं और ऐसा सोचने लगते हैं कि वे किसी बड़ी रियासत के महाराजा बन गए हैं। उनकी जय जयकार करने वाले लोग कौन हैं, यह भी वह नहीं समझ पाते। वे व्यर्थ ही गुमान के घोड़े पर सवार होते हैं। कुछ नासमझ ऐसे होते हैं जो सही गलत का निर्णय नहीं कर पाते इसलिए नासमझ कहलाते  हैं। वे कोशिश भी नहीं करते। वे सब के साथ होते हैं- आयाराम के साथ भी और गयाराम के साथ भी।  ऐसे ढुलमुल प्रवृत्ति वाले कब किसको डुबा दें, पता नहीं चल पाता।

ऐसा भी नहीं कि ऐसे नासमझों को समझाने में अपनी उर्जा लगाने वाला व्यक्ति समझदार होता है। अपनी उर्जा को व्यर्थ खर्च करने वाले ऐसे लोगों की गिनती भी नासमझों में ही की जाती है। फिर किया क्या जाए, यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर सहज ढूंढ पाना कठिन है, प्रयास करना चाहिए। आइये आप हम सब इस यक्ष प्रश्न का उपयुक्त उत्तर तलाशने की कोशिश करें।

Saturday 11 October 2008

 

.........जो अपनी औकात है

हिम्मत किसी में है तो रोक के दिखाए मुझे,

मैं हूं अकेला नहीं, दोस्तों का साथ है।

 

मारने वाले से बड़ा, बचाने वाला होता सदा,

अपने तो ऊपर फिर, ऊपर वाले का हाथ है।

 

हौसला जो रखे ऐसा, उनको न रोके कोई,

दिखने में छोटी दिखे, लाखों की यह बात है,

 

पीठ पीछे रोना छोड़, सामने जाइए,

खुद क्यों भांप लेते, जो आपकी औकात है।

 


Friday 10 October 2008

 

शाम ही ढल गई


इसकी टोपी उसके सिर, उसकी इसके सिर,

ऐसे ही तो करते उनकी, जिंदगी निकल गई।

 

दिन-रात दोस्तों को बेवकूफ बनाते रहे,

लक्ष्मी तो आई मगर, नीयत फिसल गई।

 

ऐसे लोगों का भला, आप क्या कीजिएगा,

बुध्दि भी आई तो, साइड से निकल गई।

 

दिनभर समझाते रहे, मित्र दिन का महत्व,

समझ में जब आया, तब तक शाम ही ढल गई।


Tuesday 7 October 2008

 

कवि सम्मेलन में पढ़ी कविता

गत रविवार को सिध्दार्थ सांस्कृतिक परिषद ने बेंगलूर के आरटी नगर में एक कवि सम्मेलन आयोजित किया था। यह संस्था बिहार से बेंगलूर आकर बसे प्रवासी बिहारियों की है। इस कवि सम्मेलन में मैंने एक कविता पढ़ी


कोसी का कहर

किसको पता था, कोसी ऐसा कहर ढाएगी,

इंसान तो डूबेंगे, इंसानियत भी डूब जाएगी।

डूबती जवानी ने, जिससे मांगा मदद का हाथ

पता न था उसी की, हवस का शिकार बन जाएगी।

कहते हैं, डूबते को होता है तिनके का सहारा।

यह तो बस अब, कहावत ही रह जाएगी॥

चारा खा जाने वाले भी, चल रहे सियासी चालें

मगर समझ गई जनता, अब दाल नहीं गल पाएगी।

बाज आओ लाशों पर, ऐ सियायत करने वालों

बददुआओं की कोसी में, कुर्सी भी बह जाएगी।

लगता है नेताओं की, नींद खुलेगी उस दिन,

जब कोई कोसी, इनके घर में घुस जाएगी।


Monday 6 October 2008

 

नंगे का डर

राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र में एक कहावत काफी प्रचलित है 'नागो जाणै म्हारै सूं डरै, शरमां मरतो घर मं बड़ै'। यहां नागो शब्द का मतलब बदमाश भी होता है तथा नंगे को भी मारवाड़ी भाषा में नागा कहा जाता है। यहां दोनों को समकक्ष बताया गया है। जब नंगा व्यक्ति अथवा बदमाश व्यक्ति किसी मार्ग से गुजर रहा होता है तो लोग उसे देखकर अपने घर में घुसने लगते हैं। बदमाश व्यक्ति सोचता है कि सामने वाला व्यक्ति उससे डर गया इसलिए घर में घुस गया है जबकि सामने वाला व्यक्ति शर्म के कारण अपने घर में घुसता है। वह नंगे व्यक्ति को देखकर शर्मिन्दगी महसूस करता है या यों कहें कि बदमाश के सामने पड़ने से बचना ज्यादा उपयुक्त समझता है। बदमाश का क्या भरोसा किस रूप में, कब इज्जत का फलूदा कर दे। इस प्रकार भले आदमी की सोच अपनी जगह सही है कि क्यों नंगे व्यक्ति का सामना हो इसलिए वह अपने घर में घुस जाता है। दरवाजा बंद कर लेता है। परंतु नंगा आदमी सोचता है कि उसका कितना रुतबा है, लोग उससे डर-डर के घरों में घुस रहे हैं। अपनी-अपनी सोच है।
कहावत तो कहावत होती है जिसमें कम शब्दों में लाख टके की बात समाहित होती है परंतु कहावतों की गहराई में कौन जाता है? यदि थोड़ा गहराई से सोचें तो वास्तव में नंगे और नागे(बदमाश) में कोई खास फर्क नहीं होता। जब आदमी को लोक लाज नहीं रहती, समाज-कुटुम्ब, मित्र-पड़ोसी किसी का मुलायजा नहीं रहता, आंख की शर्म नहीं रहती तब वह नंगा हो जाता है। नंगा कोई शरीर से कपड़े उतर जाने पर ही नहीं होता, बल्कि आदमी का नैतिक स्तर गिर जाने पर भी वह नंगे के समान ही हो जाता है। यह स्तर एक बार गिरना प्रारंभ हुआ नहीं कि फिर इसकी कोई सीमा नहीं रहती, वह गिरता जाता है, कितना भी गिर सकता है। नैतिकता के वस्त्र उतर जाने के बाद आदमी नंगे के समान ही है बल्कि वह तो कपड़ों से नग्न हुए आदमी से भी ज्यादा नंगा है। क्याेंकि कपड़ा तो केवल बाहरी आवरण है, नैतिकता का पतन तो अंदर तक मार करता है।
जब आदमी ऐसे नंगा हो जाता है तो वह स्वत: ही नागा(बदमाश) भी हो जाता है क्योंकि बदमाश होने के भाव जागृत होने से ही तो नैतिकता का पतन होता है और उस पतन के कारण ही फिर वह नंगा होता है। यानी कि इन दोनों स्थितियों में काफी समानता है। ऐसे नंगे या नागे लोगों से सामान्यतया भले लोग दूर रहकर अपनी इज्ज्त बचाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि इज्जत वही बचाता है जिसकी इज्जत पहले से समाज में है। जिसकी कोई इज्जत ही नहीं है, उसके पास बचाने के लिए होता भी क्या है? दूसरों को नंगा करने की कोशिशों में ही जिसने अपने को जीवनभर नंगा बनाए रखा उसको भला किस चीज की चिंता हो ? ऐसे लोगों के तो निकट से भी गुजरने में भले आदमी को कुछ न कुछ हानि की संभावना ही रहेगी।
नंगा हर कोई आदमी नहीं हो सकता। नंगे होने के लिए भी नीचता की प्रवृत्ति का होना जरूरी है। किसी भले आदमी को बड़े से बड़ा प्रलोभन देकर भी कहो कि एक बार नंगे हो जाओ, तो वह ऐसा नहीं कर सकेगा और जो पल-पल में नंगा होता है, उसे प्रलोभनों की भी जरूरत नहीं है। उसे तो ऐसी स्थिति में आनंद आता है।
ऐसे लोग दूसरों को नंगा करने का जब-तब प्रयास करते हैं और बाद में देखते हैंकि कितने सफल हुए अपने प्रयास में, तो खुद पाते हैं कि वे स्वयं पहले से ज्यादा नंगे हो गए हैं। उनका स्वयं का नैतिक पतन एक इंच और नीचे खिसक गया है।कई बार भले आदमी को लगता है कि दो टके का आदमी उसकी इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा है तब भी उसे जहर का घूंट पीकर चुप रहना पड़ता है परंतु वास्तव में देखा जाए तो वही कदम उसके लिए उपयुक्त है। लगता तो ऐसा है कि वह हार रहा है परंतु वास्तव में हारकर भी उसकी जीत है। नीच के साथ नीच होना कहां की बुध्दिमानी है?

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