Monday, 27 October 2008
केवल रस्म अदायगी न हो
दीपावली पर्व हर वर्ष आता है और चला जाता है परन्तु यह हमारे दिलों पर कितना और कैसा प्रभाव छोड़ पाता है, यह एक विचारणी प्रश्न है। बुराई पर भलाई, असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म एवं अंधकार पर प्रकाश की विजय के इस पर्व के प्रति आम आदमी, जिसे भारत का बहुसंख्यक समाज कहा जा सकता है, की रुचि वर्ष दर वर्ष कहीं कम तो नहीं होती जा रही है, और यदि ऐसा हो रहा है तो इसके कारण क्या हैं, इस पर भी गौर करने की जरूरत है। क्योंकि यदि ऐसा ही होता रहा तो केवल दीपावली ही नहीं बल्कि सदियों से मनाए जाने वाले और हमारे जीवन से जुड़े अनेक महत्त्वपूर्ण त्यौहार केवल रस्म अदायगी बनकर रह जाएंगे, एक अनिवार्य औपचारिकता के अलावा इनमें किसी की कोई रुचि नहीं रह जाएगी। कोई माने या ना माने परन्तु यह कटु सत्य है कि कोई भी पर्व तभी सार्थक होता है जब वह सर्वहारा समाज की धड़कन बनने में कामयाब हो सके। सर्वहारा समाज से तात्पर्य है उस आम आदमी से है, जिसके बिना हमारे देश की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
दीपावली धन की देवी लक्ष्मी का पर्व है। इस दिन सभी लोग धन-धान्य से लबालब होने की, सम्पूर्ण समृध्दि की कामना करते हैं परन्तु क्या कभी सभी की कामनाएं पूरी हो पाती हैं? यदि ऐसा होता तो फिर कहना ही क्या। यह विडंबना ही है कि आज भी भारत का बहुसंख्यक समाज दीपावली पर्व को अपनी इच्छा के अनुसार नहीं मना पाता है। आजादी के छह दशकों के बाद भी आम आदमी की हालत गर्व करने लायक तो दूर, संतोष करने योग्य भी नहीं है।
वैश्वीकरण का दौर आया, अर्थनीति में परिवर्तन हुए, नई आशाएं जगीं और लगा कि बस अब चमत्कार होने वाला है परन्तु पिछले एक डेढ़ दशक में आर्थिक एवं औद्योगिक नीतियों में हुए परिवर्तनों पर नजर डालें तो महसूस होगा कि पहले से ही समर्थ और समृध्द समाज और अधिक शक्तिशाली हो गया है तथा जो कमजोर थे वे बिल्कुल शक्तिविहीन हो गए हैं। एक तरफ उपभोक्ता बाजार में नई से नई चीजें आ रही हैं, महंगी से महंगी जीवन सुविधाएं खरीदी जा रही हैं, इससे देश की समृध्दता झलकती दिखती है वहीं दूसरी तरफ आम आदमी जीवन की जरूरतों की पूर्ति के लिए भी तड़प रहा है, ऐसे में कैसा प्रकाश पर्व?
यह तो बात हुई केवल आर्थिक पक्ष की। असत्य पर सत्य की, अधर्म पर धर्म की विजय वाली बात भी कितनी सार्थक दिखती है? आजादी के इतने वर्षों में हमने सबसे ज्यादा प्रगति भ्रष्टाचार के क्षेत्र में की है। भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीना भी हराम कर दिया है और राजनीति से तो यह नीति को दूर करने में भी सफल रहा है। धर्म की ओर आदमी शांति की अपेक्षा के साथ आकर्षित होता है परन्तु धर्म को भी लोगों ने व्यापार बनाना शुरू कर दिया है। धर्म की दुकानें खुलने लगी हैं, धर्म अशांति का कारण बनने लगा है। ऐसी स्थिति में अधर्म पर धर्म की विजय भी बेमानी लगने लगती है और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे सम्पूर्ण जीवन तंत्र में असत्य पर सत्य की विजय का कथन भी हास्यास्पद लगता है।
हां, अंधेरे पर प्रकाश की विजय की बात अभी भी फलीभूत हो सकती है, मगर यह काम सामूहिक भावना से ही संभव है। जो अत्यधिक निर्धन हैं, जो अत्यधिक अभावों से ग्रस्त हैं, जो स्वप्न में भी सुखों की कल्पना करने में समर्थ नहीं है, जिनके लिए पर्व सामान्य दिनों से भी ज्यादा कष्टदायक है, जो त्यौहारों को ही क्या, जीवन को ही एक रस्म अदायगी की तरह जी रहे हैं, ऐसे लोगों की किसी न किसी रूप से, अपनी सामर्थ्य के अनुसार, वे लोग जो कुछ कर सकते हैं, यदि मदद करें तो अंधेरे पर प्रकाश की विजय का कथन सार्थक सिध्द हो सकता है। यह जरूर है कि हर समर्थ व्यक्ति के दिल में जब तक यह भाव जागृत नहीं होगी कि स्वयं के लिए त्यौहारों की चमक-दमक, धूम-धड़ाका और चहल-पहल ही असली त्यौहारों का आनन्द नहीं है बल्कि अभावग्रस्तों के होठों पर थोड़ी सी मुस्कुराहट लाने में कामयाब होना पर्वों की असली सार्थकता है, तब तक त्यौहार चाहे बड़े हों या छोटे, उनको मनाना मजह रस्म अदायगी ही है।
दीपावली पर आप को और आप के परिवार के लिए
हार्दिक शुभकामनाएँ!
धन्यवाद
आम गरीब वर्ग पर तो ये त्यौहार और भी जान लेवा साबित होते हैं विचारे मन मसोस के रह जाते हैं क्या करें.दुष्यन्त कुमार ने सच ही कहा है-
कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए.
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए.
रही भृष्टचार की बात तो -
बेंच कर मुल्क मुस्कराते हैं
क़ौम के मसखरों के क्या कहने.
दीपावली पर आपको हार्दिक शुभकामनायें.
Aur ashi apna ullu seedha karna chahte hain..! Ooparwaleko jise dena hota hai, use wo bin maangehee de deta hai...! Warna, use nazar to sab aata hai...kaun maang raha hai, kiskee kya neeyat hai...! Jo sab dekhta hai, log usehee bevaqoof banana chahte hain...kaisee vidambana hai..!
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