Friday 26 September 2008

 

दूसरों की योग्यता को स्वीकारना

सभी लोग एक जैसे नहीं होते। भिन्नताएं होना स्वाभाविक है। भिन्नताएं भी तरह-तरह की हो सकती हैं, अलग-अलग क्षेत्र में हो सकती हैं।  एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न दिखाई देता है क्योंकि दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं। ऐसा भी नहीं है कि जिन्हें हम तथाकथित 'भले आदमी' या अच्छे आदमी की संज्ञा दें उनमें ही विशेषताएं होती हों। विशेषता किसी जाति, धर्म, संप्रदाय या पर्सनलिटी की मोहताज नहीं होती कि किसी विशेष किस्म के व्यक्ति में ही उसका समावेश हो। बल्कि कहा जाना चाहिए कि  विशेषताओं से पर्सनलिटी बनती है।  किसी में भी, किसी भी प्रकार की विशेषता विकसित हो सकती है। हां, यह बात जरूर है कि एक व्यक्ति दूसरे की विशेषता को अहमियत नहीं देता है या यों कहें कि नजरंदाज करने की कोशिश करता है। यह भी नहीं है कि हर बार वह अपनी इस नजरंदाज वाली अदा में सफल हो ही जाता हो परंतु इस मामले में अधिकांश लोगों की प्रवृत्ति में काफी कुछ समानता होती है कि हर व्यक्ति दूसरे की योग्यता को, दूसरे की खासियत को, दूसरे की कला को सहज ही स्वीकार नहीं करता।  वे बिरले ही लोग होते हैं जो किसी को अपने से ज्यादा योग्य, अपने से ज्यादा सक्षम, अपने से ज्यादा प्रबुध्द मानने को तैयार होते हैं।

यहां बात स्वयं से तुलना की भी नहीं है। यदि एक व्यक्ति चित्रकार नहीं है और उसका वास्ता किसी अच्छे चित्रकार से होता है तो भला उसे उस चित्रकार की प्रतिभा को स्वीकारने में क्या झिझक हो सकती है, कौन सी परेशानी हो सकती है, कौन सा वह उसका प्रतिद्वन्द्वी हो सकता है? परंतु नहीं, सहज ही उस चित्रकार की कला को स्वीकार करना उस व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता क्योंकि मनुष्य की प्रवृत्ति ही ऐसी है। दूसरे के गुणों को पचा पाना कठिन होता है। बहुत-सी बार तो दूसरे की खासियत या प्रतिभा को हम समझ नहीं पाते हैं, उसकी अनुभूति हमें नहीं होती है, इसलिए उस विशेषता को स्वीकारना कठिन होता है परंतु ज्यादातर मामलों में तो हम जानबूझ कर दूसरों को 'कुछ' भी नहीं मानते। इस प्रवृत्ति के चलते, 'क्या खास बात है, कौन सा तीर मार लिया, ऐसे तो हजारों देखे हैं, यह तो कोई भी कर सकता है', जैसे वाक्य किसी से भी सुनने को मिल जाते हैं।

कोई व्यक्ति अपने परिश्रम से, अपने प्रयास से, अपने बुध्दि-चातुर्य से, अपनी क्षमता से कुछ करता है, आगे बढता है, कोई चमत्कार करता है, कोई कीर्तिमान स्थापित करता है, किसी क्षेत्र में कोई खास जगह बनाता है तो हम उसकी तारीफ के पुल बांधें, उसे प्रोत्साहित करें, उसको नैतिक समर्थन प्रदान करें, यह तो दूर, हम उसका मखौल उडाना प्रारंभ कर देते हैं।  हमर् ईष्यावश उससे जलने लगते हैं।  हमें उसमें भांति-भांति की बुराइयां दिखने लगती हैं, खोट नजर आने लगते हैं और हम उसकी तुलना तुच्छ से भी तुच्छ वस्तु से करने लगते हैं,  क्योंकि हम वह नहीं कर सकते जो उसने किया है।  हम उस क्षेत्र में वह स्थान नहीं बना सकते जो उसने उस क्षेत्र में बनाया है। उसके जितनी काबिलियत हमारे अंदर नहीं है इसलिए उसकी योग्यता हमें गवारा नहीं।

हालांकि यह जरूरी नहीं है कि हम उसी क्षेत्र में वह स्थान बनाएं।  हम अपने क्षेत्र में उस व्यक्ति से बेहतर स्थिति में हो सकते हैं। हो सकता है कि हम उससे ज्यादा प्रतिभाशाली अपने अलग क्षेत्र में हों फिर भी हम दूसरे की योग्यता को, खासियत को स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझते हैं, जबकि  उस व्यक्ति विशेष की कला, क्षमता, प्रतिभा, योग्यता, विशेषता से हमें कोई हानि होनेवाली नहीं है। हमारी जेब से कुछ लगने वाला भी नहीं है परन्तु मनुष्य की यह प्रवृत्ति है।

एक बहुत प्राचीन कहानी कहीं पढी थी, याद आती है। एक गांव का किसान अपने घोडे पर बैठ जंगल से गुजर रहा था। उसे एक राहगीर मिला जो पेशे से चित्रकार था। चित्रकार घोडे क़ो देखकर बहुत प्रभावित हुआ।  उसने किसान से कहा कि भाई यदि इजाजत दो तो तुम्हारे घोडे क़ा एक चित्र बना लूं। आधा घंटे का समय लगेगा। इसकी भरपाई के लिए मैं तुम्हें दस रुपए दे दूंगा।  किसान ने मन में सोचा, पूरे दिनभर में दस रुपए की कमाई नहीं होती। आधे घंटे रुक जाने में दस रुपए का सौदा महंगा नहीं है। वह मान गया। चित्रकार ने उसके घोडे क़ा चित्र बनाया, दस रुपए दिए और अभिवादन कर चला गया।

करीब तीन माह बाद वही किसान उसी जंगल से होकर निकट के शहर में आया। उसने देखा कि शहर में एक चौराहे पर तम्बू लगा है और सैंकडाें लोग बाहर लाइन में लगे हैं।  पूछने पर पता चला कि अंदर कोई अत्यंत ही आकर्षक कला का नमूना लगा है जिसे देखने के लिए प्रवेश शुल्क दस रुपए रखा गया है।  किसान को लगा कि कीमत तो ज्यादा है परंतु उससे रहा नहीं गया।  उसने सोचा, देखें ऐसी क्या कला है, जिसको देखने के 10 रुपए लिए जा रहे हैं। उसके पास वह दस रुपए अभी भी सुरक्षित थे जो तीन माह पूर्व चित्रकार से मिले थे।  उसने दस रुपए देकर टिकिट खरीदा। अंदर जाकर देखा तो वही चित्रकार मौजूद था और उसके हाथ से बना उसी किसान के घोडे क़ा भव्य चित्र लगा था।  लोग दस-दस रुपए देकर चित्र का अवलोकन करने आ रहे थे।

किसान को कुछ अच्छा नहीं लगा।  उसने चित्रकार से कहा, 'अच्छी लूट मचा रखी है।  तुमने मुझे मेरे घोडे क़ा चित्र बनाने की अनुमति के मात्र दस रुपए दिए और अब एक-एक व्यक्ति से दस-दस वसूल रहे हो।  आखिर इस कागज के टुकडे, ब्रश और रंगों का कितना खर्चा लगता है? आडी-टेढी लकीरों के तुम इतने पैसे ले रहे हो? इसमें भला तुम्हारी क्या खासियत है? घोडा तो मेरा था। चित्र तो उसी घोडे क़ा है,  फिर थोडा सोचकर उसने सुझाव दिया  'तुम अपनी इस चित्रकारी (पेंटिंग) के पास में मेरे असली घोडे क़ो ही क्यों नहीं खडा कर लेते और मुझे अपने धंधे में भागीदार बना लेते?'

चित्रकार ने उसे समझाया कि भैया कागज के टुकडे, ब्रश तथा रंगों के तो कुछ पच्चीस-पचास रुपए ही लगे होंगे परंतु कला की कोई कीमत नहीं होती, जो कलाकार अपने मुंह से कह दे, वही कीमत। लोगों की भीड उन आडी-टेडी लकीरों के पीछे लगे श्रम को देखने आ रही है। परन्तु यह बात किसान मानने को तैयार नहीं था।

सच्चाई तो यही है कि हर व्यक्ति चित्रकार नहीं हो सकता, हर व्यक्ति प्रवचनकार नहीं हो सकता, सभी को भाषण देना नहीं आ सकता, हर आदमी लेखक, कवि या पत्रकार नहीं हो सकता, हर कोई इंजीनियर, डॉक्टर, खिलाडी या जादूगर नहीं हो सकता।  जिसमें जैसी योग्यता हो, जो कला हो, क्षमता हो उसके आधार पर अपना अस्तित्व कायम करता है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अपना अस्तित्व, अपनी साख, अपनी प्रतिष्ठा की स्थापना अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार स्थापित करे और साथ ही दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार करने में शर्म महसूस नहीं करे। दूसरों की योग्यता को नजरंदाज करना या स्वीकार नहीं करना कोई बुध्दिमानी नहीं है।

 


Tuesday 9 September 2008

 

कौन छोटा, कौन बड़ा?

कौन छोटा और कौन बड़ा? यह तय करना आसान नहीं है और आसान हो भी कैसे? इसमें झंझट यह होता  है, इसका निर्णय कौन करे कि छोटा कौन है, बड़ा कौन है? पहली बात तो यह है कि इस निर्णय का अधिकार हमें दूसरों को देना होगा। सामान्यत: लोग दूसरों को अधिकार ही नहीं देते कि वह तय करें-कौन छोटा है, कौन बड़ा है। लोग खुद ही तय कर लेते हैं। स्वाभाविक है कि जब आदमी अपने आपको नंबर दे रहा है तो वह भला, कम क्यों देने लगा ? व्यक्ति का बस चले तो वह सबसे बड़ा होने की बात तो छोड़िए, किसी दूसरे को उस प्रतिस्पर्धा में रहने ही नहीं देना चाहेगा, जिसमें उसे खुद को यह साबित करने की जहमत उठानी पड़े कि वह बड़ा है। वह तो यह कोशिश करेगा कि वह अकेला ही सबसे बड़ा बना रहे। आदमी का खुद के व्यक्तित्व का सवाल हो, पद या उपलब्धि का मामला हो, उद्योग-व्यवसाय का क्षेत्र हो, हर मसले में वह नंबर वन बनना चाहेगा। वैसे यह कोई गलत भी नहीं है, बनना चाहिए। आदमी सब उठापटक करता  किसलिए है, बड़ा बनने के लिए। बड़ा बनना कतई गलत नहीं परन्तु लोग ऐसा बनने का प्रयास करने या उस दिशा में लगे रहने के बजाय केवल ढोल पीटने में ज्यादा समय और ऊर्जा खर्च करते हैं कि वे ज्यादा बड़े हैं, उनके मुकाबले कोई नहीं। उन्हें ही बड़ा माना जाए क्योंकि वे खुद मानते हैैं कि वे बड़े हैं।

कई बार तो किसी को छोटी-मोटी उपलब्धि हाथ लग जाए तो वह फूला नहीं समाता। दूसरे को कुछ समझता ही नहीं । एक चूहे को कहीं गुड़ की डली (छोटा-सा टुकड़ा) मिल जाए तो वह अपने आपको पंसारी (किराना व्यापारी) समझ बैठता है। अहंकार चीज ही ऐसी है । अहंकार से भरा व्यक्ति अपने आपको दूसरों से ज्यादा महत्वपूर्ण समझने लगता है। वह दूसरों को अछूत मानने लगता है। छोटा मानने लगता है। वह अपने आपको बड़ा दिखाने के लिए दूसरों से दूर होने लगता है। उसे पता नहीं चल पाता है कि वास्तव में ऐसा करके वह खुद अछूत होता जा रहा है।

 यह सब कुछ झूठे अहंकार की वजह से होता है। अहंकारी नेता कहता है कि फलां नेता को कार्यक्रम में बुलाएंगे तो मैं नहीं आऊंगा, दोनों में से एक का चयन कर लीजिए। अहंकारी समाजसेवी कहता है मुझे ट्रस्टी बनाते हैं तो फलां-फलां लोगों को दूर ही रखिए, हमारी ओर उनकी कोई बराबरी नहीं है। अहंकारी पत्रकार कहता है कि  मैं बड़ा हूं। मेरा अखबार बड़ा है। मेरा और दूसरे का क्या मुकाबला? वह यह भी कहने से नहीं चूकेगा।फलां अखबार में समाचार छपवाना है तो फिर उसी में छपवाइये, हम नहीं छापेंगे, फलां अखबार में विज्ञापन देंगे तो हम समाचार नहीं छापेंगे। हम नेशनल लेवल के हैं। इंटरनेशनल स्तर के हैं। उन्हें कौन बताए कि लेवल तो जनता तय करती है। अहंकारी अभिनेता कहता है कि फिल्म में फलां एक्टर को नहीं लेना, अन्यथा मैं काम नहीं करूंगा। व्यापारी कहता है, उससे माल लोगे तो हम नहीं देंगे।

ऐसी    बातें बड़े लोग नहीं करते। वास्तव में बड़े होते हैं वे ओछी नहीं सोचते। ऐसी बातें सब वही लोग करते हैं जिनमें असुरक्षा का भाव होता है। जो किसी के साथ नहीं दौड़ना चाहते। वे अकेले दौड़ना चाहते हैं। जिस रेस में आदमी अकेला होता है, उसमें वही पहले स्थान पर होता है। दूसरा दौड़ेगा तभी तो पता लगेगा कि कौन कितने समय तक पहला स्थान प्राप्त करता है। दुनिया में कितने ही उदाहरण मिल जाएंगे कि कभी जो अव्वल हुआ करते थे, आज उनका नाम पूरी पंक्ति में कहीं नहीं है। आज कोई एक नंबर में है और गुरूर से भरा है तो उसे निचले नंबर की ओर खिसकने में कितना वक्त लगता है? अहंकार तो किसी का स्थायी होता ही नहीं परन्तु जब हाथी मचलता है तब वह किसी चीज की परवाह नहीं करता। वह जंगल को तहस-नहस करने पर उतारू हो जाता है। दूसरे जानवर अच्छी सलाह भी दें तो वह कहां मानता है? ताकत का इतना अहंकार उसके दिमाग में घुस जाता है कि वह सब कुछ रौंदता हुआ चलने लगता है। उसे अपनी शक्ति का गुमान होता है। वह इस असलियत को भी नजरंदाज कर देता है कि एक चींटी उसकी सूंड में घुसकर उसकी नाक में दम कर सकती है, उसे निढाल कर सकती है। परंतु वह आदत से बाज नहीं आता। जो लोग अहंकार से लबालब भरे होते हैं वही बार-बार कहते मिलेंगे कि हम बड़े हैं, हमारा कोई मुकाबला नहीं, हमारी बराबरी का कोई नहीं। ऐसे ही लोग मुकाबले से घबराते भी हैं। इन्हें अकेले दौड़ने की आदत होती है। ये मोनोपोली के आदी होते हैं। दूसरों को बर्दास्त नहीं कर पाते। जबकि सही मायने में तो बड़ा वह होता है जो दूसरों के साथ रहते हुए अपने अच्छे कार्यों से ऐसा स्थान  बनाए कि लोग उसको  सर्वोच्च स्थान पर बिठाएं।

विचार जिसके बड़े हों, भावना जिसकी उदार हो, सोच जिसकी व्यापक हो, बड़ा तो वही होता है। उसे अपना ढोल पीटने की जरूरत नहीं होती कि वह बड़ा है। 'रहिमन हीरा कब कहे लाख हमारो मोल।' उसे असुरक्षित महसूस करने की भी आवश्यकता नहीं। मगर व्यक्ति इतना सोचता कहां है? वह तो तात्कालिक लाभ के दायरे से बाहर निकल ही नहीं पाता। इसलिए असल में छोटा वह है जिसकी सोच छोटी है, जो कुएं का मेंढ़क है। एक सीमा से बाहर की दृष्टि उसकी हो ही नहीं सकती।  खुले आसमान में निश्च्छल भाव से स्वच्छंद विचरण करने वाला भला छोटा कैसे हो सकता है?

 


Sunday 7 September 2008

 

मर रही हैं संवेदनाएं

बहुत से लोग अपने वृध्द माता-पिता,

दादा-दादी को पुराने फर्नीचर की तरह समझने लगे हैं।


दिल्ली की एक घटना से अपनी बात शुरु करता हूं। एक बूढ़ी मां को दिल्ली के एक गुरुद्वारे में इसलिए शरण लेनी पड़ी क्योंकि उस बूढ़ी मां को उसके अपने बेटे ने जंगल में छोड़ दिया। बेटे ने अपनी मां को हरिद्वार ले जाने के बहाने घर से अपने साथ लिया और मोदीनगर के पास जंगल में उसे अकेला छोड़कर चला गया। इस वृध्दा को न तो ठीक से दिखाई देता है और न ही उसके पास घर का पूरा पता वगैरह है कि वह किसी के सहारे अपने घर लौट सके। किसी ने उसे भटकते हुए पाया तो गुरुद्वारे तक पहुंचाया।
आज जो सामाजिक सोच में परिवर्तन आ रहा है तथा मानव मूल्यों का जो क्षरण हो रहा है, नैतिकता का नामोनिशां मिटने की ओर है, इसका इससे प्रबल कोई उदाहरण और क्या मिलेगा? जिन बच्चों को पाल-पोष कर बड़ा करने के लिए माता-पिता अपना पेट काटकर एक-एक पैसा जोड़ते हैं। अपना मन मसोसकर, अपनी अति आवश्यक जरूरतों को भी दरकिनार कर बच्चों की पढ़ाई के लिए या उनको रोजगार दिलाने के लिए, उनका काम धंधा जमाने के लिए मां-बाप क्या नहीं करते, उन्हीं मां-बाप के साथ आज उन्हीं की जायी संतानें ऐसा बर्ताव करती हैं कि बेशर्मी भी शर्मा जाए। कहीं कोई अपने मां-बाप पर हाथ उठा रहा है तो कोई उन्हें दो वक्त की रोटी देने से मुंह मोड़ रहा है। कहीं कोई उन्हें घर से बेदखल कर फुटपाथ पर जीवन बसर करने को मजबूर कर रहा है तो कोई अपने माता-पिता को इसलिए वृध्दाश्रम छोड़कर आ रहा है क्योंकि उनकी छोटी-छोटी बातें, उनका स्वभाव, उनका रहन-सहन परिवार के अन्य सदस्यों को, मसलन, पुत्र-पुत्रवधू, पोता-पोती को रास नहीं आ रहा।
नैतिक मूल्यों में इतनी गिरावट कभी आएगी, ऐसा शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा। माता-पिता अपने बच्चों की छोटी-छोटी जरूरतों का बारीकी से, गंभीरता से ख्याल रखते हैं। उनके लालन-पालन का, शिक्षा का दायित्व बखूबी निभाते हैं क्योंकि यह कर्म भारतीय संस्कृति का एक आवश्यक अंग है। गरीब से गरीब व्यक्ति अपनी संतान के लिए सब कुछ करता है। आज भी गांवों में तो यह हालात हैं कि अगर कोई संतान अपने माता-पिता के साथ दर्ुव्यवहार करे, उनका खयाल न रखे, उन्हें प्रताड़ित करे तो गांव के लोग या पड़ौसी मिलकर उस पुत्र और पुत्रवधू को आकर लताड़ते हैं, समझाते हैं, सीख देते हैं और आवश्यकता पड़ने पर सामाजिक बहिष्कार की धमकी भी देते हैं। बूढ़े असहाय माता-पिता के साथ समाज इस प्रकार खड़ा दिखाई देता है जिसके कारण सहज ही ऐसी शर्मनाक घटनाएं गांवों में नहीं घटती हैं। लोकलाज और समाज का डर वहां आज भी कायम है।
शहर के लोगों की आंख की शर्म अब मर गई है। शहरी व्यक्ति को न पड़ोसी का डर है, न समाज का। आज व्यक्ति अपनी सुख सुविधाएं जुटाने में इतना मशगूल है कि उसकी रात की नींद और दिन का चैन गायब है। प्रतिस्पर्धा में वह सबसे आगे रहना चाहता है। हर व्यक्ति को, उसके परिवार को वह सब कुछ चाहिए, जो दूसरों के पास है। जो इतना जुटा चुके हैं, वे गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, अय्यासी कर रहे हैं, मौजमस्ती में लुटा रहे हैं। जिनके पास लुटाने के लिए नहीं है, वे जुटाने में लगे हैं। इन प्रयासों में माता-पिता की घर में उपस्थिति बाधक बनती है। आदमी को लगता है कि मां-बाप के कारण वह काफी बंधा हुआ है। पति पत्नी और बच्चों की स्वच्छंदता में वे बूढे माता-पिता कहीं रोड़े बन रहे हैं। घर में आते-जाते उनका टोकना उन्हें नहीं भाता। पोते-पोतियों को लगता है, जैसे बूढ़े दादा-दादी किसी दूसरी दुनिया के इंसान हैं, जिन्हें उनके उन पर थोप दिया गया है। बहू को लगता है जैसे उनकी हर खुशी की राह में सास-श्वसुर कांटे के समान हैं। यही कारण है कि बहुत से लोग अपने वृध्द माता-पिता, दादा-दादी को पुराने फर्नीचर की तरह समझने लगे हैं। जब घर की कोई कुर्सी या सोफा पुराना हो जाता है, आउटडेटेड लगने लगता है तो उसे पहले तो घर के किसी कोने में रख दिया जाता है, जहां सहज ही किसी की नजर ना पड़े। बाद में उस कमरे में डाल दिया जाता है जहां अन्य कबाड़खाने योग्य वस्तुएं पड़ी रहती हैं। वहां भी जब अखरने लगता है तो रात-बेरात मौका देखकर उस पुरानी कुर्सी या सोफे को घर से थोड़ी दूर किसी कूड़े के ढेर पर डाल आते हैं ताकि किसी को पता भी न चले कि फलां साहब के घर में इतना पुराना आउटडेटेड फर्नीचर पड़ा था। ठीक यही हाल कई घरों में वृध्दजनों का है। उनसे घर का कोई सदस्य सीधे मुंह बात नहीं करता। बच्चों को मां-बाप अपने दादा-दादी से दूर ही रखते हैं क्योंकि वे अब जमाने के अनुरूप नहीं है, स्टेटस में फिट नहीं हैं। बात-बात में सलाह देते हैं जबकि आज के जमाने के लोग पैदा ही समझदार होते हैं, उन्हें उपदेशों की क्या जरूरत?
दादा-दादी नाना-नानी की बोध कथाओं का जमाना अब चला गया। वे तो खुद ही अपनी कहानियों में उलझे हैं। अनेक घरों में बूढे लोग जिंदा लाश के समान हैं। मर तो सकते नहीं, क्योंकि मरना भी आसान नहीं है, जिंदा केवल शरीर है। मन मर चुका है, भावनाएं दबी पड़ी हैं, ममता मरने को मजबूर है, स्नेह सूख रहा है। बूढ़े लोगों की उपयोगिता घर की रखवाली तक सीमित रह गई है।
कहीं-कहीं पर वृध्दजनों का औपचारिक ध्यान रखा जाता है क्योंकि पुश्तैनी प्रापर्टी उनके मालिकाना हक में होती है तो उन्हें खुश रखना जरूरी होता है। किसी बुजुर्ग के पास नकदी या आभूषणों से भरी कोई संदूक (पुराने जमाने में ऐसे ही संपत्ति सहेज कर रखी जाती थी) है तो उसको खुशी-खुशी पाने की ललक में भी बुजुर्ग की देखभाल की जाती है। हालांकि आजकल तो ऐसा होना जोखिम भरा काम भी हो गया है। कुछ सिरफिरी संतानें तो बूढ़ों के मरने का इंतजार करने के बजाय प्रापर्टी जल्दी पाने के चक्कर में उन्हें ठिकाने तक लगा देते हैं। सामाजिक परिवेश में गजब का बदलाव आ रहा है और आने वाले समय में इसके और घातक परिणाम होंगे, ऐसे संकेत इस घटना से मिल रहे हैं जिसका उल्लेख मैंने लेख के प्रारंभ में किया है।
ऐसा नहीं है कि बूढे-अशक्त मां-बाप के हक की सुरक्षा के लिए कानून नहीं है परन्तु या तो ऐसे कानूनों से लोग, खासकर वृध्द लोग अनभिज्ञ हैं या फिर कोर्ट कचहरियों में चक्कर लगाने की असमर्थता के चलते प्रताड़ित होते हुए भी वृध्दजन शिकायत नहीं करते। इससे भी ज्यादा, अपनी संतान के प्रति मोह के चलते बूढ़े मां-बाप कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़ना चाहते। वे अपने परिचितों, रिश्तेदारों के समक्ष तो अपना दुखड़ा रो देते हैं परन्तु अदालतों या पुलिस का दरवाजा नहीं खटखटाते। उन्हें लगता है कि 'ज्यादा गई, थोड़ी रही', क्यों अपनी ही संतान को अदालत में घसीटें। इसलिए सब कुछ सहते रहते हैं।आज पुन: उस लोकलाज, सामाजिक दबाव के वातावरण को लौटा लाने की जरूरत है। सामाजिक संस्थाएं जागरूक हों। ऐसे विषयों पर संस्कार गोष्ठियां आयोजित की जाएं। जरूरत पड़ने पर सामाजिक बहिष्कार के रूप में भी दबाव बनाने की व्यवस्था हो तो आने वाले समय में वृध्दजन सम्मानजनक जीवन जी सकेंगे अन्यथा जिस देश में श्रवणकुमार जैसे आज्ञाकारी पुत्र हुए उसी देश के न जाने कितने ही माता-पिता घुट-घुट कर जीवन जीने को बाध्य होते रहेंगे।

Saturday 6 September 2008

 

मेरा नया ब्लॉग है यह

साथियों, यह मेरा नया ब्लॉग है। वैसे इस ब्लॉग दुनिया में मैं ज्यादा पुराना नहीं हूं। कुछ समय पूर्व ही मैंने आपके बीच 'दक्षिण भारत' शीर्षक से प्रवेश किया है। 'दक्षिण भारत राष्ट्रमत' नामक बारह पृष्ठीय हिन्दी अखबार बेंगलूर से पिछले तीन वर्षों से हम निकाल रहे हैं, जो कि यहां काफी लोकप्रिय है। इस अखबार को हिन्दी भाषी ही नहीं, अहिन्दीभाषी हिन्दी प्रेमी भी चाव से पढ़ते हैं। मुझे लगा कि इस ब्लॉग में दक्षिण भारत से संबंधित रोचक समाचार, उपयोगी लेख आदि सामग्री दी जाए और मैं अपना अलग ब्लॉग बना लूं ताकि मेरी स्वयं की रचनाएं उसमें दे सकूं। यही सोचकर shreekantparashar.blogspot.com नामक यक ब्लॉक बनाया है। मुझे आशा है कि मेरे ब्लॉग की तरह इसे भी अपनाएंगे, अपनी प्रतिक्रियाएं देकर प्रोत्साहित करेंगे। में यहां बेंगलूर में लगभग 30 वर्ष पहले आया। उस समय और आज के समय में क्या अंतर आ गया है। अनेक रोचक संस्मरण और बातें आपके साथ बांटूंगा।

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