Sunday, 7 September 2008
मर रही हैं संवेदनाएं
बहुत से लोग अपने वृध्द माता-पिता,
दादा-दादी को पुराने फर्नीचर की तरह समझने लगे हैं।
दिल्ली की एक घटना से अपनी बात शुरु करता हूं। एक बूढ़ी मां को दिल्ली के एक गुरुद्वारे में इसलिए शरण लेनी पड़ी क्योंकि उस बूढ़ी मां को उसके अपने बेटे ने
जंगल में छोड़ दिया। बेटे ने अपनी मां को हरिद्वार ले जाने के बहाने घर से अपने साथ लिया और मोदीनगर के पास जंगल में उसे अकेला छोड़कर चला गया। इस वृध्दा को न तो ठीक से दिखाई देता है और न ही उसके पास घर का पूरा पता वगैरह है कि वह किसी के सहारे अपने घर लौट सके। किसी ने उसे भटकते हुए पाया तो गुरुद्वारे तक पहुंचाया।
आज जो सामाजिक सोच में परिवर्तन आ रहा है तथा मानव मूल्यों का जो क्षरण हो रहा है, नैतिकता का नामोनिशां मिटने की ओर है, इसका इससे प्रबल कोई उदाहरण और क्या मिलेगा? जिन बच्चों को पाल-पोष कर बड़ा करने के लिए माता-पिता अपना पेट काटकर एक-एक पैसा जोड़ते हैं। अपना मन मसोसकर, अपनी अति आवश्यक जरूरतों को भी दरकिनार कर बच्चों की पढ़ाई के लिए या उनको रोजगार दिलाने के लिए, उनका काम धंधा जमाने के लिए मां-बाप क्या नहीं करते, उन्हीं मां-बाप के साथ आज उन्हीं की जायी संतानें ऐसा बर्ताव करती हैं कि बेशर्मी भी शर्मा जाए। कहीं कोई अपने मां-बाप पर हाथ उठा रहा है तो कोई उन्हें दो वक्त की रोटी देने से मुंह मोड़ रहा है। कहीं कोई उन्हें घर से बेदखल कर फुटपाथ पर जीवन बसर करने को मजबूर कर रहा है तो कोई अपने माता-पिता को इसलिए वृध्दाश्रम छोड़कर आ रहा है क्योंकि उनकी छोटी-छोटी बातें, उनका स्वभाव, उनका रहन-सहन परिवार के अन्य सदस्यों को, मसलन, पुत्र-पुत्रवधू, पोता-पोती को रास नहीं आ रहा।
नैतिक मूल्यों में इतनी गिरावट कभी आएगी, ऐसा शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा। माता-पिता अपने बच्चों की छोटी-छोटी जरूरतों का बारीकी से, गंभीरता से ख्याल रखते हैं। उनके लालन-पालन का, शिक्षा का दायित्व बखूबी निभाते हैं क्योंकि यह कर्म भारतीय संस्कृति का एक आवश्यक अंग है। गरीब से गरीब व्यक्ति अपनी संतान के लिए सब कुछ करता है। आज भी गांवों में तो यह हालात हैं कि अगर कोई संतान अपने माता-पिता के साथ दर्ुव्यवहार करे, उनका खयाल न रखे, उन्हें प्रताड़ित करे तो गांव के लोग या पड़ौसी मिलकर उस पुत्र और पुत्रवधू को आकर लताड़ते हैं, समझाते हैं, सीख देते हैं और आवश्यकता पड़ने पर सामाजिक बहिष्कार की धमकी भी देते हैं। बूढ़े असहाय माता-पिता के साथ समाज इस प्रकार खड़ा दिखाई देता है जिसके कारण सहज ही ऐसी शर्मनाक घटनाएं गांवों में नहीं घटती हैं। लोकलाज और समाज का डर वहां आज भी कायम है।
शहर के लोगों की आंख की शर्म अब मर गई है। शहरी व्यक्ति को न पड़ोसी का डर है, न समाज का। आज व्यक्ति अपनी सुख सुविधाएं जुटाने में इतना मशगूल है कि उसकी रात की नींद और दिन का चैन गायब है। प्रतिस्पर्धा में वह सबसे आगे रहना चाहता है। हर व्यक्ति को, उसके परिवार को वह सब कुछ चाहिए, जो दूसरों के पास है। जो इतना जुटा चुके हैं, वे गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, अय्यासी कर रहे हैं, मौजमस्ती में लुटा रहे हैं। जिनके पास लुटाने के लिए नहीं है, वे जुटाने में लगे हैं। इन प्रयासों में माता-पिता की घर में उपस्थिति बाधक बनती है। आदमी को लगता है कि मां-बाप के कारण वह काफी बंधा हुआ है। पति पत्नी और बच्चों की स्वच्छंदता में वे बूढे माता-पिता कहीं रोड़े बन रहे हैं। घर में आते-जाते उनका टोकना उन्हें नहीं भाता। पोते-पोतियों को लगता है, जैसे बूढ़े दादा-दादी किसी दूसरी दुनिया के इंसान हैं, जिन्हें उनके उन पर थोप दिया गया है। बहू को लगता है जैसे उनकी हर खुशी की राह में सास-श्वसुर कांटे के समान हैं। यही कारण है कि बहुत से लोग अपने वृध्द माता-पिता, दादा-दादी को पुराने फर्नीचर की तरह समझने लगे हैं। जब घर की कोई कुर्सी या सोफा पुराना हो जाता है, आउटडेटेड लगने लगता है तो उसे पहले तो घर के किसी कोने में रख दिया जाता है, जहां सहज ही किसी की नजर ना पड़े। बाद में उस कमरे में डाल दिया जाता है जहां अन्य कबाड़खाने योग्य वस्तुएं पड़ी रहती हैं। वहां भी जब अखरने लगता है तो रात-बेरात मौका देखकर उस पुरानी कुर्सी या सोफे को घर से थोड़ी दूर किसी कूड़े के ढेर पर डाल आते हैं ताकि किसी को पता भी न चले कि फलां साहब के घर में इतना पुराना आउटडेटेड फर्नीचर पड़ा था। ठीक यही हाल कई घरों में वृध्दजनों का है। उनसे घर का कोई सदस्य सीधे मुंह बात नहीं करता। बच्चों को मां-बाप अपने दादा-दादी से दूर ही रखते हैं क्योंकि वे अब जमाने के अनुरूप नहीं है, स्टेटस में फिट नहीं हैं। बात-बात में सलाह देते हैं जबकि आज के जमाने के लोग पैदा ही समझदार होते हैं, उन्हें उपदेशों की क्या जरूरत?
दादा-दादी नाना-नानी की बोध कथाओं का जमाना अब चला गया। वे तो खुद ही अपनी कहानियों में उलझे हैं। अनेक घरों में बूढे लोग जिंदा लाश के समान हैं। मर तो सकते नहीं, क्योंकि मरना भी आसान नहीं है, जिंदा केवल शरीर है। मन मर चुका है, भावनाएं दबी पड़ी हैं, ममता मरने को मजबूर है, स्नेह सूख रहा है। बूढ़े लोगों की उपयोगिता घर की रखवाली तक सीमित रह गई है।
कहीं-कहीं पर वृध्दजनों का औपचारिक ध्यान रखा जाता है क्योंकि पुश्तैनी प्रापर्टी उनके मालिकाना हक में होती है तो उन्हें खुश रखना जरूरी होता है। किसी बुजुर्ग के पास नकदी या आभूषणों से भरी कोई संदूक (पुराने जमाने में ऐसे ही संपत्ति सहेज कर रखी जाती थी) है तो उसको खुशी-खुशी पाने की ललक में भी बुजुर्ग की देखभाल की जाती है। हालांकि आजकल तो ऐसा होना जोखिम भरा काम भी हो गया है। कुछ सिरफिरी संतानें तो बूढ़ों के मरने का इंतजार करने के बजाय प्रापर्टी जल्दी पाने के चक्कर में उन्हें ठिकाने तक लगा देते हैं। सामाजिक परिवेश में गजब का बदलाव आ रहा है और आने वाले समय में इसके और घातक परिणाम होंगे, ऐसे संकेत इस घटना से मिल रहे हैं जिसका उल्लेख मैंने लेख के प्रारंभ में किया है।
ऐसा नहीं है कि बूढे-अशक्त मां-बाप के हक की सुरक्षा के लिए कानून नहीं है परन्तु या तो ऐसे कानूनों से लोग, खासकर वृध्द लोग अनभिज्ञ हैं या फिर कोर्ट कचहरियों में चक्कर लगाने की असमर्थता के चलते प्रताड़ित होते हुए भी वृध्दजन शिकायत नहीं करते। इससे भी ज्यादा, अपनी संतान के प्रति मोह के चलते बूढ़े मां-बाप कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़ना चाहते। वे अपने परिचितों, रिश्तेदारों के समक्ष तो अपना दुखड़ा रो देते हैं परन्तु अदालतों या पुलिस का दरवाजा नहीं खटखटाते। उन्हें लगता है कि 'ज्यादा गई, थोड़ी रही', क्यों अपनी ही संतान को अदालत में घसीटें। इसलिए सब कुछ सहते रहते हैं।आज पुन: उस लोकलाज, सामाजिक दबाव के वातावरण को लौटा लाने की जरूरत है। सामाजिक संस्थाएं जागरूक हों। ऐसे विषयों पर संस्कार गोष्ठियां आयोजित की जाएं। जरूरत पड़ने पर सामाजिक बहिष्कार के रूप में भी दबाव बनाने की व्यवस्था हो तो आने वाले समय में वृध्दजन सम्मानजनक जीवन जी सकेंगे अन्यथा जिस देश में श्रवणकुमार जैसे आज्ञाकारी पुत्र हुए उसी देश के न जाने कितने ही माता-पिता घुट-घुट कर जीवन जीने को बाध्य होते रहेंगे।

आज जो सामाजिक सोच में परिवर्तन आ रहा है तथा मानव मूल्यों का जो क्षरण हो रहा है, नैतिकता का नामोनिशां मिटने की ओर है, इसका इससे प्रबल कोई उदाहरण और क्या मिलेगा? जिन बच्चों को पाल-पोष कर बड़ा करने के लिए माता-पिता अपना पेट काटकर एक-एक पैसा जोड़ते हैं। अपना मन मसोसकर, अपनी अति आवश्यक जरूरतों को भी दरकिनार कर बच्चों की पढ़ाई के लिए या उनको रोजगार दिलाने के लिए, उनका काम धंधा जमाने के लिए मां-बाप क्या नहीं करते, उन्हीं मां-बाप के साथ आज उन्हीं की जायी संतानें ऐसा बर्ताव करती हैं कि बेशर्मी भी शर्मा जाए। कहीं कोई अपने मां-बाप पर हाथ उठा रहा है तो कोई उन्हें दो वक्त की रोटी देने से मुंह मोड़ रहा है। कहीं कोई उन्हें घर से बेदखल कर फुटपाथ पर जीवन बसर करने को मजबूर कर रहा है तो कोई अपने माता-पिता को इसलिए वृध्दाश्रम छोड़कर आ रहा है क्योंकि उनकी छोटी-छोटी बातें, उनका स्वभाव, उनका रहन-सहन परिवार के अन्य सदस्यों को, मसलन, पुत्र-पुत्रवधू, पोता-पोती को रास नहीं आ रहा।
नैतिक मूल्यों में इतनी गिरावट कभी आएगी, ऐसा शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा। माता-पिता अपने बच्चों की छोटी-छोटी जरूरतों का बारीकी से, गंभीरता से ख्याल रखते हैं। उनके लालन-पालन का, शिक्षा का दायित्व बखूबी निभाते हैं क्योंकि यह कर्म भारतीय संस्कृति का एक आवश्यक अंग है। गरीब से गरीब व्यक्ति अपनी संतान के लिए सब कुछ करता है। आज भी गांवों में तो यह हालात हैं कि अगर कोई संतान अपने माता-पिता के साथ दर्ुव्यवहार करे, उनका खयाल न रखे, उन्हें प्रताड़ित करे तो गांव के लोग या पड़ौसी मिलकर उस पुत्र और पुत्रवधू को आकर लताड़ते हैं, समझाते हैं, सीख देते हैं और आवश्यकता पड़ने पर सामाजिक बहिष्कार की धमकी भी देते हैं। बूढ़े असहाय माता-पिता के साथ समाज इस प्रकार खड़ा दिखाई देता है जिसके कारण सहज ही ऐसी शर्मनाक घटनाएं गांवों में नहीं घटती हैं। लोकलाज और समाज का डर वहां आज भी कायम है।
शहर के लोगों की आंख की शर्म अब मर गई है। शहरी व्यक्ति को न पड़ोसी का डर है, न समाज का। आज व्यक्ति अपनी सुख सुविधाएं जुटाने में इतना मशगूल है कि उसकी रात की नींद और दिन का चैन गायब है। प्रतिस्पर्धा में वह सबसे आगे रहना चाहता है। हर व्यक्ति को, उसके परिवार को वह सब कुछ चाहिए, जो दूसरों के पास है। जो इतना जुटा चुके हैं, वे गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, अय्यासी कर रहे हैं, मौजमस्ती में लुटा रहे हैं। जिनके पास लुटाने के लिए नहीं है, वे जुटाने में लगे हैं। इन प्रयासों में माता-पिता की घर में उपस्थिति बाधक बनती है। आदमी को लगता है कि मां-बाप के कारण वह काफी बंधा हुआ है। पति पत्नी और बच्चों की स्वच्छंदता में वे बूढे माता-पिता कहीं रोड़े बन रहे हैं। घर में आते-जाते उनका टोकना उन्हें नहीं भाता। पोते-पोतियों को लगता है, जैसे बूढ़े दादा-दादी किसी दूसरी दुनिया के इंसान हैं, जिन्हें उनके उन पर थोप दिया गया है। बहू को लगता है जैसे उनकी हर खुशी की राह में सास-श्वसुर कांटे के समान हैं। यही कारण है कि बहुत से लोग अपने वृध्द माता-पिता, दादा-दादी को पुराने फर्नीचर की तरह समझने लगे हैं। जब घर की कोई कुर्सी या सोफा पुराना हो जाता है, आउटडेटेड लगने लगता है तो उसे पहले तो घर के किसी कोने में रख दिया जाता है, जहां सहज ही किसी की नजर ना पड़े। बाद में उस कमरे में डाल दिया जाता है जहां अन्य कबाड़खाने योग्य वस्तुएं पड़ी रहती हैं। वहां भी जब अखरने लगता है तो रात-बेरात मौका देखकर उस पुरानी कुर्सी या सोफे को घर से थोड़ी दूर किसी कूड़े के ढेर पर डाल आते हैं ताकि किसी को पता भी न चले कि फलां साहब के घर में इतना पुराना आउटडेटेड फर्नीचर पड़ा था। ठीक यही हाल कई घरों में वृध्दजनों का है। उनसे घर का कोई सदस्य सीधे मुंह बात नहीं करता। बच्चों को मां-बाप अपने दादा-दादी से दूर ही रखते हैं क्योंकि वे अब जमाने के अनुरूप नहीं है, स्टेटस में फिट नहीं हैं। बात-बात में सलाह देते हैं जबकि आज के जमाने के लोग पैदा ही समझदार होते हैं, उन्हें उपदेशों की क्या जरूरत?
दादा-दादी नाना-नानी की बोध कथाओं का जमाना अब चला गया। वे तो खुद ही अपनी कहानियों में उलझे हैं। अनेक घरों में बूढे लोग जिंदा लाश के समान हैं। मर तो सकते नहीं, क्योंकि मरना भी आसान नहीं है, जिंदा केवल शरीर है। मन मर चुका है, भावनाएं दबी पड़ी हैं, ममता मरने को मजबूर है, स्नेह सूख रहा है। बूढ़े लोगों की उपयोगिता घर की रखवाली तक सीमित रह गई है।
कहीं-कहीं पर वृध्दजनों का औपचारिक ध्यान रखा जाता है क्योंकि पुश्तैनी प्रापर्टी उनके मालिकाना हक में होती है तो उन्हें खुश रखना जरूरी होता है। किसी बुजुर्ग के पास नकदी या आभूषणों से भरी कोई संदूक (पुराने जमाने में ऐसे ही संपत्ति सहेज कर रखी जाती थी) है तो उसको खुशी-खुशी पाने की ललक में भी बुजुर्ग की देखभाल की जाती है। हालांकि आजकल तो ऐसा होना जोखिम भरा काम भी हो गया है। कुछ सिरफिरी संतानें तो बूढ़ों के मरने का इंतजार करने के बजाय प्रापर्टी जल्दी पाने के चक्कर में उन्हें ठिकाने तक लगा देते हैं। सामाजिक परिवेश में गजब का बदलाव आ रहा है और आने वाले समय में इसके और घातक परिणाम होंगे, ऐसे संकेत इस घटना से मिल रहे हैं जिसका उल्लेख मैंने लेख के प्रारंभ में किया है।
ऐसा नहीं है कि बूढे-अशक्त मां-बाप के हक की सुरक्षा के लिए कानून नहीं है परन्तु या तो ऐसे कानूनों से लोग, खासकर वृध्द लोग अनभिज्ञ हैं या फिर कोर्ट कचहरियों में चक्कर लगाने की असमर्थता के चलते प्रताड़ित होते हुए भी वृध्दजन शिकायत नहीं करते। इससे भी ज्यादा, अपनी संतान के प्रति मोह के चलते बूढ़े मां-बाप कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़ना चाहते। वे अपने परिचितों, रिश्तेदारों के समक्ष तो अपना दुखड़ा रो देते हैं परन्तु अदालतों या पुलिस का दरवाजा नहीं खटखटाते। उन्हें लगता है कि 'ज्यादा गई, थोड़ी रही', क्यों अपनी ही संतान को अदालत में घसीटें। इसलिए सब कुछ सहते रहते हैं।आज पुन: उस लोकलाज, सामाजिक दबाव के वातावरण को लौटा लाने की जरूरत है। सामाजिक संस्थाएं जागरूक हों। ऐसे विषयों पर संस्कार गोष्ठियां आयोजित की जाएं। जरूरत पड़ने पर सामाजिक बहिष्कार के रूप में भी दबाव बनाने की व्यवस्था हो तो आने वाले समय में वृध्दजन सम्मानजनक जीवन जी सकेंगे अन्यथा जिस देश में श्रवणकुमार जैसे आज्ञाकारी पुत्र हुए उसी देश के न जाने कितने ही माता-पिता घुट-घुट कर जीवन जीने को बाध्य होते रहेंगे।
Comments:
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"Ah! sach mey bdaa hee dardnaak sach hai or naujvan peedhee ke liye sharmnaak bhee hai, aapke is post ke madhyem se seekh milne chaheye."
Regards
Regards
श्रीकान्त जी,
एक गम्भीर सामाजिक समस्या के प्रति आपकी भावना सराहनीय है। सचमुच हम नैतिक रूप से निरन्तर पतनशीलता की ओर अग्रसर हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि-
अगर बुजुर्गों से अच्छा सलूक करते हम।
तो फिर न हमें बच्चों से शिकायत होती।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
एक गम्भीर सामाजिक समस्या के प्रति आपकी भावना सराहनीय है। सचमुच हम नैतिक रूप से निरन्तर पतनशीलता की ओर अग्रसर हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि-
अगर बुजुर्गों से अच्छा सलूक करते हम।
तो फिर न हमें बच्चों से शिकायत होती।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
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sahi srikaant ji, aaj ki pramukh samasyaa ko badi baariki se likha hai,is badle dhaanche ko dekhkar vitrishna hoti hai,kuchek gharon ko chhod den to yah bhyaanak sthiti taandav kar rahi hai........
bahut bahut khoob , mujhe apni hi kavita ki pankti yaad aa gayi:
aise samay aati hain purkhon ki aatmayen
jab daadi ki khaansi par lagayi ja rahi hoti hai pabandi
aur ghar ka bada
aagan mein khadi karta hai deevaar
aise samay aati hain purkhon ki aatmayen
jab daadi ki khaansi par lagayi ja rahi hoti hai pabandi
aur ghar ka bada
aagan mein khadi karta hai deevaar
संवेदनशीलता जहॉं कहीं भी हैं, वहॉं अपने आप सद्गुणों की कतार खडी हो जायेगी। इसके विपरीत निष्ठुरता जहॉं हैं, वहॉं दुगुZणो की लाइन लगते देर न लगेगी।
बहुत सटीक लिखा है आपने हिन्दी ब्लॉग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है निरंतरता की चाहत है समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें
आपके छोडे हुए कमेन्ट को मैंने पढ़ा. जानकर प्रसन्नता हुई. फिर मैंने आपके द्बारा लिखी हुई ये पोस्ट पढ़ी और काफी दिल को छूने वाली बात थी. मैंने आपकी इस पोस्ट का लिंक अपने पोस्ट से दे दिया है. क्योंकि दोनों ही एक से मिलती हुई हैं.
आपका आभार.
http://panchayatnama.blogspot.com/2008/10/blog-post_09.html
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आपका आभार.
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