Tuesday 9 September 2008

 

कौन छोटा, कौन बड़ा?

कौन छोटा और कौन बड़ा? यह तय करना आसान नहीं है और आसान हो भी कैसे? इसमें झंझट यह होता  है, इसका निर्णय कौन करे कि छोटा कौन है, बड़ा कौन है? पहली बात तो यह है कि इस निर्णय का अधिकार हमें दूसरों को देना होगा। सामान्यत: लोग दूसरों को अधिकार ही नहीं देते कि वह तय करें-कौन छोटा है, कौन बड़ा है। लोग खुद ही तय कर लेते हैं। स्वाभाविक है कि जब आदमी अपने आपको नंबर दे रहा है तो वह भला, कम क्यों देने लगा ? व्यक्ति का बस चले तो वह सबसे बड़ा होने की बात तो छोड़िए, किसी दूसरे को उस प्रतिस्पर्धा में रहने ही नहीं देना चाहेगा, जिसमें उसे खुद को यह साबित करने की जहमत उठानी पड़े कि वह बड़ा है। वह तो यह कोशिश करेगा कि वह अकेला ही सबसे बड़ा बना रहे। आदमी का खुद के व्यक्तित्व का सवाल हो, पद या उपलब्धि का मामला हो, उद्योग-व्यवसाय का क्षेत्र हो, हर मसले में वह नंबर वन बनना चाहेगा। वैसे यह कोई गलत भी नहीं है, बनना चाहिए। आदमी सब उठापटक करता  किसलिए है, बड़ा बनने के लिए। बड़ा बनना कतई गलत नहीं परन्तु लोग ऐसा बनने का प्रयास करने या उस दिशा में लगे रहने के बजाय केवल ढोल पीटने में ज्यादा समय और ऊर्जा खर्च करते हैं कि वे ज्यादा बड़े हैं, उनके मुकाबले कोई नहीं। उन्हें ही बड़ा माना जाए क्योंकि वे खुद मानते हैैं कि वे बड़े हैं।

कई बार तो किसी को छोटी-मोटी उपलब्धि हाथ लग जाए तो वह फूला नहीं समाता। दूसरे को कुछ समझता ही नहीं । एक चूहे को कहीं गुड़ की डली (छोटा-सा टुकड़ा) मिल जाए तो वह अपने आपको पंसारी (किराना व्यापारी) समझ बैठता है। अहंकार चीज ही ऐसी है । अहंकार से भरा व्यक्ति अपने आपको दूसरों से ज्यादा महत्वपूर्ण समझने लगता है। वह दूसरों को अछूत मानने लगता है। छोटा मानने लगता है। वह अपने आपको बड़ा दिखाने के लिए दूसरों से दूर होने लगता है। उसे पता नहीं चल पाता है कि वास्तव में ऐसा करके वह खुद अछूत होता जा रहा है।

 यह सब कुछ झूठे अहंकार की वजह से होता है। अहंकारी नेता कहता है कि फलां नेता को कार्यक्रम में बुलाएंगे तो मैं नहीं आऊंगा, दोनों में से एक का चयन कर लीजिए। अहंकारी समाजसेवी कहता है मुझे ट्रस्टी बनाते हैं तो फलां-फलां लोगों को दूर ही रखिए, हमारी ओर उनकी कोई बराबरी नहीं है। अहंकारी पत्रकार कहता है कि  मैं बड़ा हूं। मेरा अखबार बड़ा है। मेरा और दूसरे का क्या मुकाबला? वह यह भी कहने से नहीं चूकेगा।फलां अखबार में समाचार छपवाना है तो फिर उसी में छपवाइये, हम नहीं छापेंगे, फलां अखबार में विज्ञापन देंगे तो हम समाचार नहीं छापेंगे। हम नेशनल लेवल के हैं। इंटरनेशनल स्तर के हैं। उन्हें कौन बताए कि लेवल तो जनता तय करती है। अहंकारी अभिनेता कहता है कि फिल्म में फलां एक्टर को नहीं लेना, अन्यथा मैं काम नहीं करूंगा। व्यापारी कहता है, उससे माल लोगे तो हम नहीं देंगे।

ऐसी    बातें बड़े लोग नहीं करते। वास्तव में बड़े होते हैं वे ओछी नहीं सोचते। ऐसी बातें सब वही लोग करते हैं जिनमें असुरक्षा का भाव होता है। जो किसी के साथ नहीं दौड़ना चाहते। वे अकेले दौड़ना चाहते हैं। जिस रेस में आदमी अकेला होता है, उसमें वही पहले स्थान पर होता है। दूसरा दौड़ेगा तभी तो पता लगेगा कि कौन कितने समय तक पहला स्थान प्राप्त करता है। दुनिया में कितने ही उदाहरण मिल जाएंगे कि कभी जो अव्वल हुआ करते थे, आज उनका नाम पूरी पंक्ति में कहीं नहीं है। आज कोई एक नंबर में है और गुरूर से भरा है तो उसे निचले नंबर की ओर खिसकने में कितना वक्त लगता है? अहंकार तो किसी का स्थायी होता ही नहीं परन्तु जब हाथी मचलता है तब वह किसी चीज की परवाह नहीं करता। वह जंगल को तहस-नहस करने पर उतारू हो जाता है। दूसरे जानवर अच्छी सलाह भी दें तो वह कहां मानता है? ताकत का इतना अहंकार उसके दिमाग में घुस जाता है कि वह सब कुछ रौंदता हुआ चलने लगता है। उसे अपनी शक्ति का गुमान होता है। वह इस असलियत को भी नजरंदाज कर देता है कि एक चींटी उसकी सूंड में घुसकर उसकी नाक में दम कर सकती है, उसे निढाल कर सकती है। परंतु वह आदत से बाज नहीं आता। जो लोग अहंकार से लबालब भरे होते हैं वही बार-बार कहते मिलेंगे कि हम बड़े हैं, हमारा कोई मुकाबला नहीं, हमारी बराबरी का कोई नहीं। ऐसे ही लोग मुकाबले से घबराते भी हैं। इन्हें अकेले दौड़ने की आदत होती है। ये मोनोपोली के आदी होते हैं। दूसरों को बर्दास्त नहीं कर पाते। जबकि सही मायने में तो बड़ा वह होता है जो दूसरों के साथ रहते हुए अपने अच्छे कार्यों से ऐसा स्थान  बनाए कि लोग उसको  सर्वोच्च स्थान पर बिठाएं।

विचार जिसके बड़े हों, भावना जिसकी उदार हो, सोच जिसकी व्यापक हो, बड़ा तो वही होता है। उसे अपना ढोल पीटने की जरूरत नहीं होती कि वह बड़ा है। 'रहिमन हीरा कब कहे लाख हमारो मोल।' उसे असुरक्षित महसूस करने की भी आवश्यकता नहीं। मगर व्यक्ति इतना सोचता कहां है? वह तो तात्कालिक लाभ के दायरे से बाहर निकल ही नहीं पाता। इसलिए असल में छोटा वह है जिसकी सोच छोटी है, जो कुएं का मेंढ़क है। एक सीमा से बाहर की दृष्टि उसकी हो ही नहीं सकती।  खुले आसमान में निश्च्छल भाव से स्वच्छंद विचरण करने वाला भला छोटा कैसे हो सकता है?

 


Comments:
बहुत ही अच्छे विचार। प्रस्तुतिकरण भी अच्छा है।
 
sach kaha aapne.
 
श्रीकांत जी बहुत ही उचित बात कही हे आप ने,अगर हमारा अंहकार मर जाये तो हम इंसान बन सकते हे.
धन्यवाद
 
'commendable, very appreciable thoughts and words'

Regards
 
दुर्भाग्य से अंहकार की कोई उम्र नही होती श्रीकांत जी.......एक सशस्त लेखन के लिए बधाई .....
 
Sabhi pathak sathion ka abhar ki itna lamba lekh bhi padhkar pratikriya dete hain.
 
बहुत विचारपूर्ण पोस्ट है. वास्तव में बड़प्पन भी सीखा जा सकता है. धन्यवाद!
 
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