Friday 26 September 2008

 

दूसरों की योग्यता को स्वीकारना

सभी लोग एक जैसे नहीं होते। भिन्नताएं होना स्वाभाविक है। भिन्नताएं भी तरह-तरह की हो सकती हैं, अलग-अलग क्षेत्र में हो सकती हैं।  एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न दिखाई देता है क्योंकि दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं। ऐसा भी नहीं है कि जिन्हें हम तथाकथित 'भले आदमी' या अच्छे आदमी की संज्ञा दें उनमें ही विशेषताएं होती हों। विशेषता किसी जाति, धर्म, संप्रदाय या पर्सनलिटी की मोहताज नहीं होती कि किसी विशेष किस्म के व्यक्ति में ही उसका समावेश हो। बल्कि कहा जाना चाहिए कि  विशेषताओं से पर्सनलिटी बनती है।  किसी में भी, किसी भी प्रकार की विशेषता विकसित हो सकती है। हां, यह बात जरूर है कि एक व्यक्ति दूसरे की विशेषता को अहमियत नहीं देता है या यों कहें कि नजरंदाज करने की कोशिश करता है। यह भी नहीं है कि हर बार वह अपनी इस नजरंदाज वाली अदा में सफल हो ही जाता हो परंतु इस मामले में अधिकांश लोगों की प्रवृत्ति में काफी कुछ समानता होती है कि हर व्यक्ति दूसरे की योग्यता को, दूसरे की खासियत को, दूसरे की कला को सहज ही स्वीकार नहीं करता।  वे बिरले ही लोग होते हैं जो किसी को अपने से ज्यादा योग्य, अपने से ज्यादा सक्षम, अपने से ज्यादा प्रबुध्द मानने को तैयार होते हैं।

यहां बात स्वयं से तुलना की भी नहीं है। यदि एक व्यक्ति चित्रकार नहीं है और उसका वास्ता किसी अच्छे चित्रकार से होता है तो भला उसे उस चित्रकार की प्रतिभा को स्वीकारने में क्या झिझक हो सकती है, कौन सी परेशानी हो सकती है, कौन सा वह उसका प्रतिद्वन्द्वी हो सकता है? परंतु नहीं, सहज ही उस चित्रकार की कला को स्वीकार करना उस व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता क्योंकि मनुष्य की प्रवृत्ति ही ऐसी है। दूसरे के गुणों को पचा पाना कठिन होता है। बहुत-सी बार तो दूसरे की खासियत या प्रतिभा को हम समझ नहीं पाते हैं, उसकी अनुभूति हमें नहीं होती है, इसलिए उस विशेषता को स्वीकारना कठिन होता है परंतु ज्यादातर मामलों में तो हम जानबूझ कर दूसरों को 'कुछ' भी नहीं मानते। इस प्रवृत्ति के चलते, 'क्या खास बात है, कौन सा तीर मार लिया, ऐसे तो हजारों देखे हैं, यह तो कोई भी कर सकता है', जैसे वाक्य किसी से भी सुनने को मिल जाते हैं।

कोई व्यक्ति अपने परिश्रम से, अपने प्रयास से, अपने बुध्दि-चातुर्य से, अपनी क्षमता से कुछ करता है, आगे बढता है, कोई चमत्कार करता है, कोई कीर्तिमान स्थापित करता है, किसी क्षेत्र में कोई खास जगह बनाता है तो हम उसकी तारीफ के पुल बांधें, उसे प्रोत्साहित करें, उसको नैतिक समर्थन प्रदान करें, यह तो दूर, हम उसका मखौल उडाना प्रारंभ कर देते हैं।  हमर् ईष्यावश उससे जलने लगते हैं।  हमें उसमें भांति-भांति की बुराइयां दिखने लगती हैं, खोट नजर आने लगते हैं और हम उसकी तुलना तुच्छ से भी तुच्छ वस्तु से करने लगते हैं,  क्योंकि हम वह नहीं कर सकते जो उसने किया है।  हम उस क्षेत्र में वह स्थान नहीं बना सकते जो उसने उस क्षेत्र में बनाया है। उसके जितनी काबिलियत हमारे अंदर नहीं है इसलिए उसकी योग्यता हमें गवारा नहीं।

हालांकि यह जरूरी नहीं है कि हम उसी क्षेत्र में वह स्थान बनाएं।  हम अपने क्षेत्र में उस व्यक्ति से बेहतर स्थिति में हो सकते हैं। हो सकता है कि हम उससे ज्यादा प्रतिभाशाली अपने अलग क्षेत्र में हों फिर भी हम दूसरे की योग्यता को, खासियत को स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझते हैं, जबकि  उस व्यक्ति विशेष की कला, क्षमता, प्रतिभा, योग्यता, विशेषता से हमें कोई हानि होनेवाली नहीं है। हमारी जेब से कुछ लगने वाला भी नहीं है परन्तु मनुष्य की यह प्रवृत्ति है।

एक बहुत प्राचीन कहानी कहीं पढी थी, याद आती है। एक गांव का किसान अपने घोडे पर बैठ जंगल से गुजर रहा था। उसे एक राहगीर मिला जो पेशे से चित्रकार था। चित्रकार घोडे क़ो देखकर बहुत प्रभावित हुआ।  उसने किसान से कहा कि भाई यदि इजाजत दो तो तुम्हारे घोडे क़ा एक चित्र बना लूं। आधा घंटे का समय लगेगा। इसकी भरपाई के लिए मैं तुम्हें दस रुपए दे दूंगा।  किसान ने मन में सोचा, पूरे दिनभर में दस रुपए की कमाई नहीं होती। आधे घंटे रुक जाने में दस रुपए का सौदा महंगा नहीं है। वह मान गया। चित्रकार ने उसके घोडे क़ा चित्र बनाया, दस रुपए दिए और अभिवादन कर चला गया।

करीब तीन माह बाद वही किसान उसी जंगल से होकर निकट के शहर में आया। उसने देखा कि शहर में एक चौराहे पर तम्बू लगा है और सैंकडाें लोग बाहर लाइन में लगे हैं।  पूछने पर पता चला कि अंदर कोई अत्यंत ही आकर्षक कला का नमूना लगा है जिसे देखने के लिए प्रवेश शुल्क दस रुपए रखा गया है।  किसान को लगा कि कीमत तो ज्यादा है परंतु उससे रहा नहीं गया।  उसने सोचा, देखें ऐसी क्या कला है, जिसको देखने के 10 रुपए लिए जा रहे हैं। उसके पास वह दस रुपए अभी भी सुरक्षित थे जो तीन माह पूर्व चित्रकार से मिले थे।  उसने दस रुपए देकर टिकिट खरीदा। अंदर जाकर देखा तो वही चित्रकार मौजूद था और उसके हाथ से बना उसी किसान के घोडे क़ा भव्य चित्र लगा था।  लोग दस-दस रुपए देकर चित्र का अवलोकन करने आ रहे थे।

किसान को कुछ अच्छा नहीं लगा।  उसने चित्रकार से कहा, 'अच्छी लूट मचा रखी है।  तुमने मुझे मेरे घोडे क़ा चित्र बनाने की अनुमति के मात्र दस रुपए दिए और अब एक-एक व्यक्ति से दस-दस वसूल रहे हो।  आखिर इस कागज के टुकडे, ब्रश और रंगों का कितना खर्चा लगता है? आडी-टेढी लकीरों के तुम इतने पैसे ले रहे हो? इसमें भला तुम्हारी क्या खासियत है? घोडा तो मेरा था। चित्र तो उसी घोडे क़ा है,  फिर थोडा सोचकर उसने सुझाव दिया  'तुम अपनी इस चित्रकारी (पेंटिंग) के पास में मेरे असली घोडे क़ो ही क्यों नहीं खडा कर लेते और मुझे अपने धंधे में भागीदार बना लेते?'

चित्रकार ने उसे समझाया कि भैया कागज के टुकडे, ब्रश तथा रंगों के तो कुछ पच्चीस-पचास रुपए ही लगे होंगे परंतु कला की कोई कीमत नहीं होती, जो कलाकार अपने मुंह से कह दे, वही कीमत। लोगों की भीड उन आडी-टेडी लकीरों के पीछे लगे श्रम को देखने आ रही है। परन्तु यह बात किसान मानने को तैयार नहीं था।

सच्चाई तो यही है कि हर व्यक्ति चित्रकार नहीं हो सकता, हर व्यक्ति प्रवचनकार नहीं हो सकता, सभी को भाषण देना नहीं आ सकता, हर आदमी लेखक, कवि या पत्रकार नहीं हो सकता, हर कोई इंजीनियर, डॉक्टर, खिलाडी या जादूगर नहीं हो सकता।  जिसमें जैसी योग्यता हो, जो कला हो, क्षमता हो उसके आधार पर अपना अस्तित्व कायम करता है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अपना अस्तित्व, अपनी साख, अपनी प्रतिष्ठा की स्थापना अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार स्थापित करे और साथ ही दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार करने में शर्म महसूस नहीं करे। दूसरों की योग्यता को नजरंदाज करना या स्वीकार नहीं करना कोई बुध्दिमानी नहीं है।

 


Comments:
श्रीकान्त जी मनुष्य कोई नदि या समुद्र नही है जो हर किसी को स्वीकारता चले। वो तो बडा बनने की असीम चाहत उसे दुसरों को नीचा दिखाने पर मज़बूर कराती रहती है।बहुत सही लिखा आपने
 
" bhut accha artical likha hai aapne, painter or farmer ke story bhee impress kertee hai, Anil jee ne shee ka kee inssan matr ke inssan hai vo koee smunder nahee, sub apnee apnee soch rkthey hain or apne hee heesab se agey bdhna chahteyn hain. Thanks for this presentation"

Regards
 
बहुत अच्छी और गहरी बात सिखायी आपने। साधुवाद!
 
विचार प्रधान लेख लिखा है. पढ़कर बहुत अच्छा लगा
 
आपके सत्य को स्वीकारते हुये मै बस इतना कहुंगा कि इस दुनिया मे ऐसा कोइ नही जो सभी काम कर सके और ऐसा भी कोइ नही जो कुछ ना कर सके!!
 
achche writeup ke liye badhaaee
 
Aap sabne lekh pasand kiya, aabhari hun. maine apni soch aur samajh ke anusar likha hai. yah jaruri bhi nahi ki sabko pasand aahi jaye phir bhi pasand kiya gaya iski khushi hai. main blogvani par apni pasand ke vishyon par lekh ya kavitayen hoti han unhen padhta hun aur pratikriya bhi vyakt karta hun.
 
श्रीकांत जी, सच कहा है आपने. यही बात जिन लोगों को समझ आ जाए वे सफल और जो चूक गए वे...
 
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