Monday 27 October 2008

 

उल्लुओं का ठाठ


दीपावली आ गई है। पिछले वर्ष भी आई थी। न जाने कितने वर्षों से आ रही है। दीपावली आने का समय होता है तो कई दिनों पहले से ही खुसर-फुसर शुरू हो जाती है। माहौल से लगने लगता है कि दीपावली बस अब निकट ही है। लक्ष्मी के स्वागत के लिए लोग तैयार होने लगते हैं। हरेक व्यक्ति को लगता है कि बस इस बार दिवाली में लक्ष्मी की कृपा उसी पर होने वाली है। दिवाली आती है और चली जाती है। असंख्य लोगों को पता भी नहीं चलता कि कब आई और चली गई। लक्ष्मीजी की बाट जोहते ही रह जाते हैं लोग।


एक समय था जब व्यापारी खूब तैयारी करते थे। लक्ष्मी को रिझाने के हर संभव प्रयास होते थे परंतु अब तो व्यापारियों की स्कीमों का भी लक्ष्मीजी पर असर नहीं होता है। उल्लू पर सवार लक्ष्मीजी साइड से निकल जाती हैं। उल्लू भी अब होंशियार हो गया है। अब तो उल्लू का भी वश चले तो वह दूसरों को उल्लू बना दे। बना भी देता है। वह लक्ष्मीजी को लेकर जब चलता है तो सभी को लगता है कि वह उसी की तरफ आ रहा है। अच्छे-अच्छे पढ़े लिखे विद्वानों, समझदार-होंशियार व्यापारियों, बुध्दिमान उद्योगपतियों को धत्ता बताते हुए वह ऐसा खिसकता है कि पता भी नहीं चलता और ऐसे लल्लू के यहां ले जाकर लक्ष्मी मैया को उतारता है कि लल्लू खुद समझ नहीं पाता कि लक्ष्मी ने उसके यहां पधारने की कृपा क्या सोचकर की होगी? कहा भी तो है कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख। जिसने आशा नहीं की उसके यहां लक्ष्मी छप्पर फाड़कर आ जाती है और रोज देहरी धोकर जो लक्ष्मीजी के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं, वे ताकते रह जाते हैं, अगर उल्लू की कृपा ना हो। उल्लू किसके यहां आकर लक्ष्मी को उतारे, इसी पर तो सब निर्भर है।


वैसे तो उल्लू को बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है। उसे बेवकूफ या मूर्ख समझा जाता है। परंतु वास्तविकता इससे काफी अलग होती है। वह उल्लू इतना आसानी से किसी को भी उल्लू बना सकता है कि अगले को भनक भी नहीं लगे और जेब भी कट जाए। पिछले कई वर्षों से ऐसा ही हो रहा है। हर वर्ष लोग सोचते हैं कि इस बार दिवाली में वारे-न्यारे हो जाएंगे। दुकानदार जमकर माल खरीदी करते हैं, बेचने के लिए। सोचते हैं पांचों अंगुलियां घी में होंगी। अपनी ताकत से ज्यादा खरीदी करते हैं। फिर पूरी ताकत लगा देते हैं बेचने में, परंतु बिकता नहीं। बन गए न उल्लू? सोचते हैं लक्ष्मीजी इस बार आएंगी तो पैर पकड़कर बैठ जाएंगे, छोड़ेंगे ही नहीं, परंतु लक्ष्मी वाहन उल्लू उन्हें 'बाई पास' ले जाता है। आए ही नहीं तो पकड़ोगे किसको?


अब तो लोगों को उल्लू से भीर् ईष्या होने लगी है। इसके लिए लक्ष्मीजी को तो दोष दे नहीं सकते। उनको दोष देने के लिए हिम्मत भी तो चाहिए। खामखां नाराज हो जाएं तो लेने के देने पड़ जाएं। इसलिए लक्ष्मीजी की बजाय लोग उनके वाहन उल्लू सेर् ईष्या करते हैं। आदमी का भी दोष नहीं है। जब व्यक्ति उल्लू के ठाठ-बाट देखता है तो स्वतःर् ईष्या होने लगती है। जीवन के हर मोड़ पर आदमी देखता है कि उसका उल्लुओं से पाला पड़ रहा है। वह देखता है उल्लुओं के ठाठ-बाट, उल्लुओं की रईसी, उनकी सुख-सुविधाएं। यह सब देखकर लोग अपने आप को उल्लू कहलाने को भी तैयार हैं।


उल्लू लक्ष्मी मैया को चला रहा है। उल्लुओं का राजनीति में प्रवेश हो गया है। अब उल्लू देश को चलाने में सहयोग कर रहे हैं। उल्लू क्योंकि लक्ष्मीजी को ढोए चल रहे हैं, इसीलिए उनकी तूती बोल रही है। उल्लू सभा संगठनों में घुस गए हैं। आता-जाता कुछ नहीं हो तब भी पतवार थाम लेते हैं। नैया पार लगे या नहीं, परंतु छोड़ेंगे नहीं। उल्लू बड़े-बड़े संस्थानों में प्रवेश कर गए हैं। उल्लुओं का साम्राज्य सर्वत्र व्याप्त है। अच्छी-अच्छी हस्तियां उल्लुओं के द्वार पर खड़ी गिड़गिड़ाती नजर आती हैं। नजरें इनायत करने की गुहार करती फिरती हैं।


देश की राजनीति में उल्लुओं की जमात मालपुए खा रही हैं। जिधर मालपुए मिलते हैं उधर ही यह जमात अपना रुख कर लेती है। दूसरी ओर आम आदमी को रोटी के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि उल्लू और लक्ष्मी का चोली दामन का साथ है। भले ही उल्लू लक्ष्मी की सवारी ही क्यों न हो पर बिना उल्लू के लक्ष्मीजी एक कदम भी कहां चलती हैं? इसलिए भाई साहब, उल्लू को सम्मानजनक नजर से देखना चाहिए। लक्ष्मी मैया ने उल्लू को अपना वाहन बनाया तो कुछ सोच समझकर ही बनाया होगा।

Comments:
शुभ-दीवाली।
 
शुभ-दीवाली।
 
ab to aisa lagne laga hai ki kaash main bhi ullooooooooooo hota
 
नहीं भाई, हम उल्लू को बिल्कुल भी उल्लू याने मूर्ख समझने की मूर्खता नहीं करते ।
आपको व आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ।
घुघूती बासूती
 
बस एक ही उल्लू काफ़ी था,
बर्बाद गुलिस्तां करने को.
हर शाख पे उल्लू बैठा है,
अंजामे-गुलिस्तां क्या होगा.

उल्लू को उल्लू कह ना सकें,
कितनी प्यारी मजबूरी है,
अब सत्य बोलना दुष्कर है,
अण्जामे संस्कृति क्या होगा?

खुद चुनना पङता उल्लू को,
अपना ही शासन करने को.
उल्लू से बढकर हम उल्लू.
अंजामे- हकीकत क्या होगा!
 
दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ। दीपावली आप और आप के परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि और खुशियाँ लाए।
 
रोचक!!

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

समीर लाल
http://udantashtari.blogspot.com/
 
बहुत बढ़िया !
 
Ha ha kya baat shrikaant jee bahut umda ! aaj sabhee bloggers bahut khush hain. Sach din achha hai. Aur iseeliye aapko bhee deepavali kee bahut bahut shubhkaamnaen. ulloo se gupt mantrana ka time le liya hai. apan milkar baat karenge deevali ke baad. Ha ha !
 
Ummed singh jee ne sher galat likha hai. main sudhare deta hoon. Ye yoon hai--

बस एक ही उल्लू काफ़ी है,
बर्बाद फ़ज़ाएँ करने को !
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है,
अंजामे गुलिस्ताँ का हुई है ?

o.k.
 
अब चूंकि उल्लू पालने से लोगों को गुलिस्तां के अंजाम की फिक्र हो जाती है इसलिये हमने तो उल्लू के पट्ठे के पट्ठे पाल रखे हैं लक्ष्मी मैय्या का जब उल्लू के पोते देखने का मन करता है तो चली आती हैं इसी बहाने कुछ अपना भी बेड़ा पार हो जाता है श्रीकांत जी
बहरहाल अच्छा सात्विक व्यंग्य
पर अखबार नहीं मिला
खैर
 
कहां फंस गये भाई....... कुछ लिखो अब..
 
अखबार के कुछ अंक मिले
३१ दिसंबर तक इधर के आयैजनों में व्यस्त हूं जनवरी की कोई भी डेट रख लें
 
मज़ा आगया ! काफी दिन बाद आपको पढ़ पाया हूँ , आपका ब्लाग का लिंक मेरे गीत पर दे रहा हूँ !
सादर !
 
bahut badhiya likha hai shreekant ji ulluon ke that per.lekin "her shakh per ullu baithe hain, anjam- e gulista kya hoga" sonchn sonch ker dil baitha ja raha hai aur dur tak ummeed ki koi kiran nahin deekh rahi hai.dhanyavad.
 
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