Monday 20 October 2008

 

संकीर्ण सोच


आदमी भी अद्भुत जीव है। प्रभु ने इतनी विशाल सृष्टि की और एक प्रमुख काम किया कि मनुष्यों में वैचारिक भिन्नता के बीज बो दिए। बस, इसके बाद बाकी काम अपने आप हो गए। अपने चारों ओर देखिए, जो भी विसंगतियां दिखाई देंगी वे सब मनुष्य जाति में वैचारिक भिन्नता के परिणाम स्वरूप हैं।

विचार, व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्धारण करते हैं। विचार सरल हो सकते हैं, उदार हो सकते हैं, तटस्थ हो सकते हैं, संकीर्ण हो सकते हैं। विचारों में परिवर्तन  भी होता रहता है परंतु जिनके विचार संकीर्ण हों उनमें परिवर्तन के दर्शन होना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। कई बार तो संकीर्ण विचारों वाले व्यक्ति में परिवर्तन के प्रयास उसके विचारों को और अधिक संकुचित कर देते हैं। अन्य विचारधारा के लोग संकुचित विचारों के व्यक्ति को कोसते हैं, उसको दोष देते हैं परंतु कारणों की गहराई में नहीं जाते। दरअसल पूरा दोष उस व्यक्ति का नहीं होता। काफी हद तक उसकी संगत, उसकी उठ-बैठ, आसपास का माहौल आदि उसकी संकुचित मनोवृत्ति का कारण होते हैं। अच्छे विचारोंवाला व्यक्ति भी जब संकीर्ण विचारों के लोगों के बीच ज्यादा समय बिताने लगे तो उस पर भी संगत का असर पड़ने लगता है। उसकी सोच संकुचित हो जाती है। कुएं के मेंढक को पता ही नहीं होता कि कुएं से बाहर भी कोई दुनिया होती है। उसे बाहर का कोई रास्ता मालूम नहीं होता। वह सोच भी नहीं सकता कि बाहर जाया भी जा सकता है। उसकी सोच सीमित होती है। संकुचित होती है। कुएं के मेंढक एक चार दीवारी में कैद होते हैं, जैसे कैदी कारागृह में रहते हैं। 

कहते हैं एक देश में बहुत वर्षों से लोग एक बड़ी जेल में बंद थे। उनमें अनेक तो जघन्य अपराधी थे। कोई बीस वर्षों से बंद था, कोई पचास वर्षों से बंद था। अनेक कैदी तो केद में ही मर भी गए। जो थे वे अंधेरी कोठरियों में पड़े रहते। प्रकाश की किरण उन्होंने देखी नहीं। जेल इस प्रकार बनी थी कि न आसमान दिखाई देता था, न कभी सूर्य के दर्शन होते थे, बस हमेशा एक जैसा ही वातावरण। कैदी मिलते तो बस एक दूसरे को अपने अपराधों के कारनामे सुनाते। इसके अलावा करते भी क्या? बाहरी दुनिया से उनका कोई वास्ता नहीं रह गया था।

एक बार देश में भारी क्रांति आई। क्रांतिकारियों ने जेल के दरवाजे भी तोड़ दिए। कैदियों को मुक्त कर दिया ताकि कैदी भाग निकलें लेकिन कैदियों ने बड़ी नाराजगी दिखाई। वे बाहर नहीं जाना चाहते थे। उनको अंदर रहने की आदत पड़ गई थी। बाहर के लोगों से उनको कोई संबंध नहीं था। परंतु क्रांतिकारियों ने उन्हें जबरन बाहर निकाल दिया, बोले, अब तुम स्वतंत्र हो, स्वच्छंद वातावरण में विचरण करो। खुली हवा के झौंकों का आनंद लो, सूर्य की किरणों की गर्माहट का एहसास प्राप्त करो, नीले नभ को निहारो और दुनिया को देखो, कितनी बड़ी है।

कैदियों को जेल से निकाल तो दिया गया परंतु रात होने से पहले ही उनमें से आधे से ज्यादा कैदी वापस लौट आए और उन्होंने कहा, हमें अपनी कोठरियां ही चाहिएं, हमें नहीं चाहिए खुली हवा, हमें कोई सरोकार नहीं इस बाकी की दुनिया से, हम तो अपनी कैद में ही भले हैं। हमारे विचारों का, हमारी बातों का इन बाहर वालों से कोई तालमेल ही नहीं बैठ रहा है। न तो हमारी समझ में इनकी बातें आ रही हैं और न ही हम जो अभिव्यक्त करना चाहते हैं उसको ये समझ पा रहे हैं। हम तो अपनी कोठरी में ही अच्छे हैं। कैदी एक बार कारागार में रह गया तो बार-बार वहीं लौटकर आता है। उसे बाहर अच्छा नहीं लगता। उसकी असली दुनिया उस कारागृह के अंदर है, असली परिवार अंदर है, मित्र परिचित अंदर हैं। 

इसी प्रकार जो संकुचित सोच के लोग हैं उनका अपनी ही सोच वाले लोगों में मन लगता है। संकीर्ण विचारों का व्यक्ति कभी उदारवादी लोगों के बीच में बैठ जाए तो 'अन इजी' महसूस करने लगता है। दौड़कर अपने दड़बे में ही जाना चाहता है। कैद में हमेशा संकीर्णता रहती है। उदारता के लिए कैद नहीं है, उदारता स्वच्छंद है। सीमाएं संकीर्णता के लिए हैं, उदारता में तो सबका स्वागत है। वह सबके लिए है, सब उसके लिए हैं। उदारता सबको पसंद नहीं आती। संकीर्ण सोच के व्यक्ति को उदार विचारों के लोगों के बीच घुटन महसूस होती है। उन्हें अपनी ही सोच श्रेष्ठ लगती है। वे अपनी सोच का दायरा बना लेते हैं। तर्क गढ़ लेते हैं। आपकी बातें, आपकी सलाह उनके विचारों की सीमा में बैठती है तो आप उनके मित्र, अन्यथा वे आपको दुश्मन मान लेते हैं। आप उनके लिए किसी दूसरी दुनिया के अजूबे होते हैं। संकीर्ण या संकुचित विचारों को क्रांति से नहीं बदला जा सकता। ये धीरे-धीरे बदलते हैं। ठोकरें खाने से बदलते हैं।


Comments:
Sahi kaha aapne, aabhar.
 
बहुत ही सुनदर विचार
धन्यवाद
 
well its nice to know that you have great hits here.
 
im your favorite reader here!
 
help me.
 
संकीर्ण विचारों का व्यक्ति कभी उदारवादी लोगों के बीच में बैठ जाए तो 'अन इजी' महसूस करने लगता है। दौड़कर अपने दड़बे में ही जाना चाहता है। कैद में हमेशा संकीर्णता रहती है
" kitna bda scah kha hai aapne, aisa he hotta hai, good artical.."

Regards
 
bahut spashtata ke saath aapne apni baat kahi aur bilkul sahi......
 
सच कहा आपने .....उदारता की सही परिभाषा दी है
 
सही बात के लिये
साधुवाद स्वीकारें
पाराशर जी
 
बिल्कुल सच्चाई लिखी है संकीर्ण भावना पर ! बदकिस्मती से हमारे देश में भी यह बीमारी कम नही है भाई जी !
बहुत आवश्यक व सामयिक लेख !
 
Very nice I Appreciate your saying
 
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