Monday 6 October 2008

 

नंगे का डर

राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र में एक कहावत काफी प्रचलित है 'नागो जाणै म्हारै सूं डरै, शरमां मरतो घर मं बड़ै'। यहां नागो शब्द का मतलब बदमाश भी होता है तथा नंगे को भी मारवाड़ी भाषा में नागा कहा जाता है। यहां दोनों को समकक्ष बताया गया है। जब नंगा व्यक्ति अथवा बदमाश व्यक्ति किसी मार्ग से गुजर रहा होता है तो लोग उसे देखकर अपने घर में घुसने लगते हैं। बदमाश व्यक्ति सोचता है कि सामने वाला व्यक्ति उससे डर गया इसलिए घर में घुस गया है जबकि सामने वाला व्यक्ति शर्म के कारण अपने घर में घुसता है। वह नंगे व्यक्ति को देखकर शर्मिन्दगी महसूस करता है या यों कहें कि बदमाश के सामने पड़ने से बचना ज्यादा उपयुक्त समझता है। बदमाश का क्या भरोसा किस रूप में, कब इज्जत का फलूदा कर दे। इस प्रकार भले आदमी की सोच अपनी जगह सही है कि क्यों नंगे व्यक्ति का सामना हो इसलिए वह अपने घर में घुस जाता है। दरवाजा बंद कर लेता है। परंतु नंगा आदमी सोचता है कि उसका कितना रुतबा है, लोग उससे डर-डर के घरों में घुस रहे हैं। अपनी-अपनी सोच है।
कहावत तो कहावत होती है जिसमें कम शब्दों में लाख टके की बात समाहित होती है परंतु कहावतों की गहराई में कौन जाता है? यदि थोड़ा गहराई से सोचें तो वास्तव में नंगे और नागे(बदमाश) में कोई खास फर्क नहीं होता। जब आदमी को लोक लाज नहीं रहती, समाज-कुटुम्ब, मित्र-पड़ोसी किसी का मुलायजा नहीं रहता, आंख की शर्म नहीं रहती तब वह नंगा हो जाता है। नंगा कोई शरीर से कपड़े उतर जाने पर ही नहीं होता, बल्कि आदमी का नैतिक स्तर गिर जाने पर भी वह नंगे के समान ही हो जाता है। यह स्तर एक बार गिरना प्रारंभ हुआ नहीं कि फिर इसकी कोई सीमा नहीं रहती, वह गिरता जाता है, कितना भी गिर सकता है। नैतिकता के वस्त्र उतर जाने के बाद आदमी नंगे के समान ही है बल्कि वह तो कपड़ों से नग्न हुए आदमी से भी ज्यादा नंगा है। क्याेंकि कपड़ा तो केवल बाहरी आवरण है, नैतिकता का पतन तो अंदर तक मार करता है।
जब आदमी ऐसे नंगा हो जाता है तो वह स्वत: ही नागा(बदमाश) भी हो जाता है क्योंकि बदमाश होने के भाव जागृत होने से ही तो नैतिकता का पतन होता है और उस पतन के कारण ही फिर वह नंगा होता है। यानी कि इन दोनों स्थितियों में काफी समानता है। ऐसे नंगे या नागे लोगों से सामान्यतया भले लोग दूर रहकर अपनी इज्ज्त बचाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि इज्जत वही बचाता है जिसकी इज्जत पहले से समाज में है। जिसकी कोई इज्जत ही नहीं है, उसके पास बचाने के लिए होता भी क्या है? दूसरों को नंगा करने की कोशिशों में ही जिसने अपने को जीवनभर नंगा बनाए रखा उसको भला किस चीज की चिंता हो ? ऐसे लोगों के तो निकट से भी गुजरने में भले आदमी को कुछ न कुछ हानि की संभावना ही रहेगी।
नंगा हर कोई आदमी नहीं हो सकता। नंगे होने के लिए भी नीचता की प्रवृत्ति का होना जरूरी है। किसी भले आदमी को बड़े से बड़ा प्रलोभन देकर भी कहो कि एक बार नंगे हो जाओ, तो वह ऐसा नहीं कर सकेगा और जो पल-पल में नंगा होता है, उसे प्रलोभनों की भी जरूरत नहीं है। उसे तो ऐसी स्थिति में आनंद आता है।
ऐसे लोग दूसरों को नंगा करने का जब-तब प्रयास करते हैं और बाद में देखते हैंकि कितने सफल हुए अपने प्रयास में, तो खुद पाते हैं कि वे स्वयं पहले से ज्यादा नंगे हो गए हैं। उनका स्वयं का नैतिक पतन एक इंच और नीचे खिसक गया है।कई बार भले आदमी को लगता है कि दो टके का आदमी उसकी इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा है तब भी उसे जहर का घूंट पीकर चुप रहना पड़ता है परंतु वास्तव में देखा जाए तो वही कदम उसके लिए उपयुक्त है। लगता तो ऐसा है कि वह हार रहा है परंतु वास्तव में हारकर भी उसकी जीत है। नीच के साथ नीच होना कहां की बुध्दिमानी है?

Comments:
नीच के साथ नीच होना कहां की बुध्दिमानी है?
'very well said, great thought and artical on declinig moral values in todays life. "

regards
 
'नागो जाणै म्हारै सूं डरै, शरमां मरतो घर मं बड़ै'। ये तो बिल्कुल सही लिखा है। और हां जो पहले से ही नंगा है उसको खोने को क्या। कुछ नहीं।
 
नीच के साथ नीच होना कहां की बुध्दिमानी है?

-आप सही कह रहे हैं ... अच्छा आलेख!!
 
बहुत सही बात...
बढ़िया आलेख हेतु धन्यवाद.
 
सटीक लिखा आपने।बधाई।
 
क्या बात है जी आप तो पत्रकारों की तरह से कलम चलाते है थोडी सी आपबीती भी होनी चाहिये। क्या ख्याल है।
 
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