Monday 2 November 2009

 

नेकी कर, कुएं में डाल


साधु संतों ने एक मार्के की बात कही है कि "नेकी कर, कुएं में डाल'। यानी कि किसी का कोई उपकार करो तो करके भूल जाओ। किसी की भलाई करके उसे भूल जाने में ही भलाई है क्योंकि उपकार करने के बाद याद रखने का मतलब है कि आपके मन में उसके बदले कुछ प्राप्त करने की भावना जन्म ले सकती है। उपकार के बदले अपेक्षा जागृत हो सकती है और यदि ऐसा हुआ तो आपके द्वारा किए गए अमूल्य उपकार का मूल्य कम हो सकता है, उसका महत्त्व खत्म हो सकता है।
दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं। कुछ तो ऐसे होते हैं जो किसी के उपकार की बात स्वप्न में भी नहीं सोचते। उन्हें उत्पात करने से फुर्सत मिले तो उपकार की सोचें। वह अपनी रुचि के, यानी कि खुराफाती कामों में व्यस्त रहते हैं, मस्त रहते हैं। उनकी तो बात ही छोड़ दीजिए। हम केवल उनकी बात करेंगे जो दूसरों का उपकार करते हैं, दूसरों के भले-बुरे की सोचते हैं और उनका भला करने में ही अपना हित समझते हैं। ऐसे व्यक्तियों को भी दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। एक वे जो "नेकी कर कुएं में डाल' वाले सिद्धांत का अक्षरसः पालन करने में समर्थ होते हैं। उन्हें सामने वाले से रत्तीभर भी अपेक्षा नहीं होती। वे कतई नहीं सोचते कि कभी आवश्यकता पड़ने पर सामने वाला भी उनकी मदद करेगा या नहीं, उनके इस उपकार का बदला चुकाएगा या नहीं। अपेक्षा भाव का लेस मात्र भी अपनी आत्मा में जन्म नहीं लेने देने की क्षमता रखने वाले ऐसे लोग आज के युग में विरले ही मिलते हैं, फिर भी जो हैं, वे महान्‌ हैं, प्रणाम करने योग्य हैं।
दूसरे वे लोग होते हैं जो कभी किसी को आवश्यकता पड़ने पर बेझिझक मदद करते हैं, हर संभव सहायता को तत्पर रहते हैं। यह मदद कैसी भी हो सकती है। मदद करने वाले बिना स्वार्थ के मदद करते हैं। उनके मन में कोई अपेक्षा नहीं होती है। मदद के बदले कोई शर्त भी नहीं रखते हैं वे। ना ही मन में कोई ऐसा सौदा करते हैं कि आज जो उपकार कर रहे हैं उसका फल वापस फलां-फलां अवसर पर वे चाहते हैं। जैसे ही उन्हें लगा कि मदद के लिए व्यक्ति आशा भरी नजरों से द्वार पर आ ही गया है तो उसे निराश नहीं लौटाना चाहिए और वे मदद कर देते हैं। कई बार तो आदमी अपने घर-परिवार के लोगों की, अपने साथियों-भागीदारों की, अपने सहकर्मियों की नाराजगी मोल लेकर भी दूसरों की मदद करते हैं, सहयोग करते हैं।
ऐसे लोग अपने द्वारा किए गए उपकार के बदले वापस बदले में किसी उपकार की अपेक्षा तो नहीं करते हैं परन्तु जब कभी परिस्थितियां ऐसी बनती हैं या ऐसा मौका आता है कि वह देखते हैं और लोगों से सुनते हैं कि जिस व्यक्ति की उन्होंने मदद की थी, जिसे बार-बार सहयोग दिया था, अपनी औकात से आगे बढ़कर सहायता की, आर्थिक ही नहीं, हर संभव मदद की, वही व्यक्ति उनके प्रति अलग भाव रखता है, पीठ पीछे से उनकी चुगली करता है तो मदद करने वाले तो निश्चय ही पीड़ा से कराह उठते हैं। क्योंकि ऐसे लोग उपकार के बदले उपकार की अपेक्षा नहीं करते हैं तो उपकार के बदले अपकार (अपमान) की भी अपेक्षा नहीं करते और जब उपकार के बदले अपकार मिलता है तो फिर उनकी पीड़ा को महसूस किया जा सकता है।
जो वास्तव में जरूरतमंद होते हैं, कमजोर होते हैं, उनकी मदद करें तो वे आपको जीवनभर नहीं भूलेंगे, उनकी आत्मा भी आपके लिए दुआएं मांगेगी। मगर जो अपने होते हैं, कोई रिश्तेदार या मित्र अथवा अपनी बिरादरी के लोग, जो आपसे बस थोड़ा-सा कम समर्थ होते हैं, कोई जरूरतमंद नहीं होते, उनको आपने कहीं कोई नौकरी लगवा दी तो भविष्य में वे या तो तरह-तरह की शिकायतें लेकर आएंगे, या उनकी शिकायतें आएंगी। उन्हें अगर कोई काम-धंधा करने में आपने मदद कर दी तो आपको अपयश ही मिलेगा। किसी के रहने का इंतजाम नहीं है और आपने उसे अपने घर में रख लिया तो जब वह कमाने-खाने लगेगा तब आपकी भलमनसाहत गई भाड़ में, वह आप ही को आंखें दिखाएगा। आपने अपने यहां अगर काम दे दिया तो वह एक दिन आप ही के सामने ताल ठोंककर खड़ा होगा, आपका ही प्रतिद्वंद्वी बनेगा। ये असल में वे लोग हैं जो नेकी करने वालों को ही कुएं में डालने को उद्यत रहते हैं।
भलाई के बदले किसी भी तरह की अपेक्षा करना या न करना तो एक बात हुई परन्तु उनको क्या कहा जाए जो भलाई करने वालों को यानी कि नेकी करने वालों को ही कुएं में डालने पर उतारु हों। आज के जमाने में वैसे भी हर कोई, किसी की भी मदद करने से कतराता है। आज सब जानते हैं कि अपना काम निकालकर लोग कन्नी काटने लगते हैं। ऐसे समय में यदि उपकार का बदला लोग अपकार से देने लगे तो भला आवश्यकता पड़ने पर कोई भी व्यक्ति किसी की मदद करने कहां से आगे आएगा, क्यों आएगा? कहां मिलेंगे सहयोग करने वाले लोग?
दरअसल आदमी जब संकट में होता है तब उसकी सोच अलग होती है। कष्ट में आदमी भगवान से लेकर दुश्मन तक सबके सामने घुटने टेकने को तैयार रहता है और मदद पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है परन्तु एक बार कष्ट से पार हुआ कि सोच बदल जाती है। वह भूल जाता है कि किस समय किस चीज की महत्ता होती है। भूल जाता है कि अंधकार में प्रकाश की एक किरण का भी महत्व होता है। प्यास ही न हो तो जल का क्या महत्व? एक प्यासा व्यक्ति तीन-चार गिलास पानी पी लेता है परन्तु इनमें से पहली घूंट का जितना महत्व है उतना बाकी के दो-तीन गिलास का नहीं। प्यासे मरते व्यक्ति के लिए पानी की एक बूंद जीवनदायिनी होती है जबकि तृप्त व्यक्ति के लिए घड़ों पानी भी बेकार है।
परन्तु एहसान फरामोश लोग सब कुछ भूल जाते हैं। जरूरत के समय सहायता के महत्व को बाद में वे नकार देते हैं। इसका कारण है लोगों में नैतिकता का पतन, जो लगातार हो रहा है। किसी की मदद कर उस पर एहसान नहीं जताना चाहिए, यह एक बात है परन्तु दूसरी ओर मदद लेने वाले को भी एहसान फरामोशी नहीं करनी चाहिए, यह भी तो नैतिकता का ही सिद्धांत है।
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा दूसरों के लिए जीते रहे, दुनिया की मदद करते रहे, अपनी ताकत नहीं तो भाग दौड़ कर दूसरों से जरूरतमंद की मदद करवाते रहे, खुद के लिए कुछ नहीं किया। दूसरों का वर्तमान खुशहाल हो जाए इसके लिए खुद का भविष्य दांव पर लगा दिया। जब ऐसे लोगों का वास्ता एहसान फरामोश लोगों से पड़ता है तो एक बारगी ये भले लोग अंदर से टूट जाते हैं, इनका दिल टूट जाता है। फिर भी, येे अपनी आदत तो नहीं बदल सकते। भले लोग जानते हैं कि बेवकूफों को समझाने की बजाय खुद को समझाकर ही संतोष कर लेना बुद्धिमानी है। बहरों को भजन सुनाएंगे तो उन्हें कहां समझ आएंगे?
देश के जाने माने कवि अल्हड़ बीकानेरी की इन पंक्तियों में देखिए कितना यथार्थ भरा है, नेकी करने वाले दिल छोटा ना करें-
एहसान किए जिस पर हमने
वो श"स हमें पहचाने क्यों?
खामोश अभी तक थे "अल्हड़'
बहरों से लगे बतियाने क्यों?

Comments:
सटीक आलेख!!

एहसान किए जिस पर हमने
वो श"स हमें पहचाने क्यों?
खामोश अभी तक थे "अल्हड़'
बहरों से लगे बतियाने क्यों?

-अल्हड़ जी की इन पंक्तियों में पूरा सार है.
 
बढियां लगा पढ कर, अपना अपना स्वभव है
 
परन्तु एहसान फरामोश लोग सब कुछ भूल जाते हैं।आप की बात से सहमत हुं.
धन्यवाद
 
अल्हड़ जी को इस बहाने खूब याद किया... साधुवाद..
 
सत्य वचन। सुन्दर विश्लेषण के साथ अच्छी पोस्ट।

अपना कहकर जिसे सम्भाला मेरी हालत पे हँसते।
ऊपर से हँस भी लेता पर गर्द हृदय में सहता हूँ।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
 
एहसान किए जिस पर हमने
वो श"स हमें पहचाने क्यों?
खामोश अभी तक थे "अल्हड़'
बहरों से लगे बतियाने क्यों ...

पूरा निचोड़ है अल्हड जी की इस रचना में ....... आपने सच लिखा है बिलकुल .......
 
बहुत बढ़िया लिखा है आपने ! मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ! आपकी लेखनी को सलाम!
 
par dukhe upakaar kare to man abhimaan na aane re...
 
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