Monday 19 October 2009

 

बनावटी चेहरे


यहां हर कोई बनावटी चेहरे लिए घूम रहा है। सबके चेहरों पर मुखौटे हैं। व्यक्ति बाहर से दिखता है, वैसा अंदर है नहीं। जैसा वह अंदर है, बाहर वैसा दिखना नहीं चाहता। चेहरों की मानो मंडी लगी हुई है। चेहरों के इस बाजार में आदमी खोजना मुश्किल है। आजकल बस आकृतियां मिलती हैं, आदमी नहीं मिलते। जो मिलते हैं उन्होंने मुखौटे लगा रखे हैं, इसलिए प्रामाणिकता के साथ कहा नहीं जा सकता कि वे आदमी ही हैं। मुखौटे के पीछे जो चेहरा छिपा है उसे पहचानना मुश्किल है। अब तक ऐसा कोई यंत्र नहीं बना है जिससे असली चेहरा पहचाना जा सके। बनावटी चेहरों का सर्वत्र साम्राज्य है। इसलिए इस भीड़ में असली चेहरे ढूंढना मुश्किल है। ढूंढें भी तो कैसे? ढूंढने वाले भी अधिकांश ऐसे हैं जिन्होंने खुद ने मुखौटे लगा रखे हैं। हम सबको आदत हो गई है झूठे चेहरे लगाकर जीने की। बनावटी चेहरे लिए जी रहे हैं, घूम रहे हैं और असली चेहरों को ढूंढने की कोशिश भी करते रहते हैं।
कोई सोचता है कि मंदिर, गुरुद्वारे या मस्जिद में जाने वाले तो असली चेहरे के साथ जाते होंगे। सभा-सत्संग में जाते समय तो मुखौटा घर पर उतार कर जाते होंगे क्योंकि कहते हैं भगवान के पास झूठे चेहरों के साथ नहीं जा सकते। हम धार्मिक स्थलों या सत्संग-प्रवचन में जाते हैं तो समझ लेते हैं कि हम ईश्वर के पास पहुंच गए हैं। यह नहीं समझ पाते कि जो मुखौटा हमने लगा रखा है वह जब तक उतारेंगे नहीं तब तक हम कहीं नहीं पहुंचेंगे, भगवान की तो बात बहुत दूर की है। मंदिर, प्रवचन, भजन संध्या में उपस्थित होकर कोई भी व्यक्ति दूसरों के मन में इंसान होने का भ्रम तो पैदा कर सकता है परन्तु इंसान तभी हो सकता है जब वह मुखौटा उतार कर फेंक दे। अंदर और बाहर के भेद को मिटा दे।
एक व्यक्ति बाहर से बड़ा सौम्य दिखाई देता है, चेहरे पर मुस्कान लिए, आदर भाव व्यक्त करते हुए आपसे विनम्रता से पेश आता है परन्तु उसके मन में आपके प्रति क्या भाव हैं, वह पहचानने के लिए आपके पास कोई बैरोमीटर नहीं है, ऐसे में आप उसे एक सभ्य, अच्छा और भला इंसान ही कहेंगे। एक व्यक्ति कभी राम मंदिर जाकर चंदन की टिकिया लगाता है, कभी किसी भजन संध्या में जाकर झूम झूमकर नाचता है, कभी किसी प्रवचन में घंटे भर बैठकर प्रवचन सुनता है, किसी से दो मीठे बोल बोलता है तो यों लगता है मानो इससे बढ़िया आदमी क्या होता होगा परन्तु असल जिंदगी में, अपने ही घर-परिवार में उसका रूप दूसरा होता है। बेअदबी उसके स्वभाव में है, अहंकार और अक्खड़पन में वह आकंठ डूबा है, बड़े-बुजुर्गों का आदर करना उसने सीखा नहीं, हर दम गुरूर में तमतमाया रहता है। यह उसका असली चेहरा है परन्तु इससे दुनिया वाकिफ नहीं होती। बाहर जब वह निकलता है तो मुखौटा लगाकर निकलता है, नकली चेहरा लगाकर निकलता है। उसे पहचान पाना नामुमकिन है। यह स्वभाव की बात हुई। यह स्वभाव का मुखौटा है।
इसी प्रकार उदारता, दानवीरता का मुखौटा लगाए अनेक लोग घूमते हैं। कोई व्यक्ति विद्वान होने का नकली चेहरा लगाए है। कोई समाजसेवी होने का मुखौटा पहने है। कोई धर्मात्मा होने का चेहरा लगाए हुए है। हर कोई असलियत छुपाने में लगा है। पूरी सावधानी बरत रहा है कि किसी को असलियत पता नहीं लग जाए। जिसे बाहरी तौर पर हम धर्मात्मा समझे बैठे होते हैं, कभी उसकी पोल खुलती है तो पता लगता है कि वैसी दुष्टात्मा तो ढूंढे नहीं मिलेगी। कोई समाजसेवी बना फिर रहा है, असल में उसने खुद की सेवा करने का ढंग ढूंढ लिया है, समाजसेवा तो उसके लिए ढोंग है। कोई बाल कल्याण की , कोई महिला कल्याण की संस्था चला रहा है, बाद में कोई पुलिस केस बनता है तो पता चलता है कि वह कैसे कैसे कल्याण कर रहा था। कोई अनाथ आश्रम का पैसा खा रहा है, कोई वृद्धाश्रम के नाम पर अपना घर भर रहा है, कोई ऐय्याशियां ही कर रहा है। परन्तु सब लगे हैं, अपने अपने ढंग से। सब ने मुखौटे पहन रखे हैं। पहचान छिपी है। बाहर नकली चेहरा है, अंदर का चेहरा बाहर दिखाई नहीं देता।
ऐसा नहीं है कि सब के सब लोग नकली हैं कुछेक भले लोग असली चेहरे में सामने आते हैं परन्तु अधिकांश लोग नकली चेहरा लगाकर घूम रहे हैं, तो बात उन्हीं की की जाती है। कोई एक व्यक्ति नकली चेहरा लगाकर घूम रहा है तो वह समझता है कि जिस व्यक्ति से वह मिल रहा है, वह तो असली रूप में ही होगा । यह एक भ्रम मात्र है। दरअसल वह भी नकली चेहरा लगाए घूम रहा होता है। जो दिख रहा है वह उसका मुखौटा है। सब एक दूसरे को धोखा दे रहे हैं। हम अगर किसी को धोखा दे रहे हैं तो हमें भी कोई धोखा दे रहा है।
हर व्यक्ति जानता है कि वह अपनी असलियत छुपाकर दूसरे को धोखा दे रहा है। व्यक्ति को लगता है कि जैसा व्यवहार वह बाहर कर रहा है, लोगों के सामने जैसा पेश आ रहा है, दुनिया उसे ही हकीकत समझेगी परन्तु मनुष्य यह भूल जाता है कि असलियत बहुत ज्यादा दिन छिपती नहीं। ढोंग उजागर होता ही है। अगर हम किसी व्यक्ति से नकली व्यवहार करते हैं, यह दर्शाते हैं कि हम उसे आदर-मान दे रहे हैं परन्तु असल में हमारे मन में उसके प्रति कोई आदर नहीं है, दुनिया को दिखाने के लिए हम ढकोसला कर रहे हैं तो एक न एक दिन सच्चाई सामने आएगी। आती ही है। जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन क्या होगा? कुछ नहीं होगा क्योंकि हम अगर असली होते तो ऐसा करते ही नहीं, जब नकली चेहरा लगाए सब किए जा रहे हैं तो किसी भी हालात का डर भी कहां है? बेशर्मी ओढ रखी हो तो डर भी कैसा? दूसरों के साथ व्यवहार की तो छोड़िए, लोग अपनों को भी नहीं बख्सते। अपनों के साथ भी मुखौटा लगाकर पेश आते हैं। असल में ऐसे लोग दूसरों को नहीं, खुद को धोखा दे रहे होते हैं।
यह सच है कि किसी भी व्यक्ति को लाख समझाइए, वह नहीं समझता। जब तक व्यक्ति के खुद के साथ नहीं बीतती, जब तक वही सब कुछ खुद के साथ नहीं होता, जो दूसरों के साथ वह करता है तब तक उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। हम जिंदगी भर दूसरों पर पत्थर फेंकते रहते हैं, दुर्व्यवहार करते रहते हैं, गालियां देते रहते हैं, बेवकूफ बनाते रहते हैं, दिल दुखाते रहते हैं, धोखा देते रहते हैं परन्तु यही सब जब हमारे खुद के साथ होता है तब आंखें खुलती हैं। मुखौटा ओढे हुए, नकली चेहरे लगाए हुए लोगों के साथ ऐसा ही होता है। हमारे एक मित्र कवि-शायर हैं, मुकुन्द कौशल। उनकी गजल का यह शेर देखिए-
मैंने जिस पर पत्थर फेंके,
सारी रात अंधेरे में।
दिन निकला तो मैंने देखा,
मेरा अपना घर निकला।

Comments:
यह कलयुग का प्रताप है।
भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!
 
बहुत सुंदर लिखा आप ने आज के समय के अनुसार लोग भी अपना मतलब पुरा करने के लिये हि मुखोटा भ)ई बदलते रहते है.
धन्यवाद
 
सही कहा है आपने श्रीकान्त भाई। सचमुच मुखौटों के पीछे का असली चेहरा पहचानना मुश्किल होता है। कभी मैंने लिखा था कि -

शक्ल हो बस आदमी का क्या यही पहचान है।
ढ़ूँढ़ता हूँ दर-ब-दर मिलता नहीं इन्सान है।।

या फिर-

कैसे हो पहचान जगत में असली नकली चेहरों की
अगर पसीने की रोटी हो चेहरा खूब निखरता है

सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
 
बिलकुल सही कहा है आपने। इन्सान रहे ही कहाँ हैं जो मुखौटा पहनने की जरूरत ही न पडे अब तो इन्सान के भेश मे बहुरूपिये हैं जो अपनी मर्जी और आवश्यकता के अनुसार मुखौटे लगा लेते हैं । धन्यवाद और शुभकामनायें
 
सही लिखा है आपने .. एक दो व्‍यक्ति मुखौटे न भी पहने हों तो हम उनपर विश्‍वास नहीं कर पाते हैं .. आज के युग में !!
 
श्रीकांत जी,
दीपावली की शुभकामनाएँ.
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Naqaab kabhi na kabhi utarhee jate hain...chahe dard chhupane ke liye pahne yaa kisee ko bewaqoof banane ke liye odhen!
 
sahi kaha aapne... dil ko chhoone wala aalekh..
 
I am new to blog community but i have got this plateform best to put our thoughts and i started blogginh. i thank u that u visited my blog but this is not the end u just be with me i want ot tell u more things either by blog or mail bcz do belive me i have got something which according to my knowledge is best for our birth. AS i have written in my secong para " bus 6 mahine dijyen" do read it and just try to get something why i am saying about 6 months.
 
sach hai,par jinke paas mukhaute nahi,we aksar raat ki khamoshi me sisakte hain......
bahut achha likha hai
 
बहुत सही लिखा है आपने मुखोटा लगाना आज जैसे अनिवार्य हो गया है |आज के मानव कि पहचान बताता सशक्त आलेख |
शातिरों की बस्ती में बस गये हम
झूठ ही जिनका ओढ़ न
झूठ ही जिनका बिछावन
झूठ ही जिनका दम ख़म है |
आभार
 
वाह भाई जी, वाह..... बहुत दिनों के बाद आपने स्मरण किया पर चलो किया तो सही.. मैं अभिभूत हूं ...........

आलेख सामयिक और सटीक है. साधुवाद स्वीकारें...
 
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