Sunday, 12 October 2008
नासमझ लोग
मैंने कभी एक दृष्टांत सुना था या कहीं पढ़ा था, उसी से बात प्रारंभ करना चाहूंगा। अमेरिका का कोई नामी व्यक्ति थालॉरेंस। वह था तो अमेरिकी परन्तु रहा हमेशा अरब देश में। उसे मरुस्थल अच्छे लगते थे। वह अरब के लोगों से इतना घुल मिल गया कि सब कुछ, यानी कि दुख-सुख उन्हीं के साथ बांटता था। एक बार वह अपने 10-12 अरबी दोस्तों को लेकर पेरिस गया। वहां कोई विश्वस्तरीय प्रदर्शनी लगी थी, वह उन्हें दिखाने ले गया । वे सब एक बड़े होटल में ठहरे। फाइव स्टार होटल होगा। सूखे देश अरब के लोगों ने इस तरह भरपूर पानी कहीं देखा नहीं था। वे बाथरूम में घुसते तो नहाते ही रहते। पानी का भरपूर आनन्द उठाते। प्रदर्शनी में भी उनको खास दिलचस्पी नहीं थी बस जल्दी जल्दी होटल आते और नहाने लगते। यहां तक कि तीन दिनों में उन्होंने अधिकांश समय बाथरूम में ही बिताया। वापसी का समय आ गया। रेलवे स्टेशन जाने के लिए गाड़ियां नीचे लग गई, सामान लद गया परन्तु लारेंस के अरब वाले वे दोस्त नीचे नहीं आए। उसने देखा माजरा क्या है, उधर गाड़ी छूट जाएगी और इधर ये लोग अभी तैयार होकर नहीं आएहैं । वह उल्टे पांव कमरे की तरफ दौड़ा। उसने होटल के कमरे में जाकर देखा तो वे सभी मित्र बाथरूम की टोंटियां खोल खोल कर अपने बैग में भर रहे थे। उसने उनको पूछा यह क्या कर रहे हो, तो मित्रों ने बताया कि उन्हें पानी में नहा नहा कर बड़ा आनन्द आया, इसलिए अपने साथ ही टोंटियां(नल) खोलकर अपने घर ले जाना चाहते हैं ताकि घर पर भी खूब पानी का आनन्द उठा सकें। बेचारे ने इन दोस्तों की बात सुनकर अपना माथा ठोंक लिया। ऐसे नासमझ लोगों को कैसे समझाया जा सकता है कि पानी टोंटी में से आता जरूर है परंतु टोंटी में पैदा नहीं होता, वह उसका स्त्रोत नहीं है।
नासमझ लोग ऐसा ही करते हैं, समझने का प्रयास भी नहीं करते। कोई समझाए भी तो उसको बेवकूफ समझते हैं। दुनिया का कोई पागल अपने आपको कभी पागल नहीं मानता। वह उसी को पागल बताता है जो उसे पागलखाने में भर्ती कराने जाता है या इलाज कराने जाता है। बेवकूफ को बेवकूफ कहो तो उसको करंट लगता है परंतु नासमझ कहने से बात उतनी नहीं बिगड़ती, इसलिए हमेशा इस शब्द का ही इस्तेमाल करना चाहिए। बेवकूफ कहने से नामसझ कहना अच्छा है। थोड़ा 'सम्मानजनक' शब्द है।
नासमझ आदमी के हाथ कुछ लग जाए तो वह उन अरब के लोगों की तरह ही करने लगता है। जल्दी जल्दी बटोर कर बैग में भरने लगता है। वह यह भी नहीं समझ पाता कि लोग उसकी नासमझी पर हंस रहे हैं, चुटकियां ले रहे हैं। बंदर के हाथ में उस्तरा दे दें तो वह उसको ऐसे घुमाने लगता है कि थोड़ी देर बाद उसके स्वयं के शरीर पर भी घाव हो जाते हैं परन्तु उस्तरा हाथ में आ ही गया तो उसका भी क्या दोष है? उपयोग करना नहीं आता यह तो उसकी नासमझी के कारण नहीं आता।
दुनिया में ऐसे ऐसे नासमझ लोग भी आपको मिल जाएंगे जो घर फूंक कर तमाशा देखने से नहीं हिचकिचाते। अपनी जेब से हजारों रुपए केवल इसलिए खर्च कर देंगे कि दूसरा व्यक्ति जलकर राख हो जाए भले ही अगले व्यक्ति की उसके कृत्य पर नजर ही न पड़े। कभी कभी ऐसे नासमझ व्यक्ति की यदि समझ वाली कोई नाड़ी जागृत होने भी लगे तो उसके इर्द-गिर्द रहने वाले लोग उस नाड़ी को काट देते हैं और उसे अनाड़ी ही बना रहने को बाध्य कर देते हैं।
नासमझ आदमियों के कोई एक-दो प्रकार नहीं होते। ये तो विस्तृत रैंज में मिलते हैं । तरह-तरह की वैराइटी में मिलते हैं। कुछ अपना कामधंधा छोड़कर झूठी चौधराहट में संलग्न रहते हैं, कुछ ऐसे होते हैं जो धूर्तों द्वारा बार बार गिर कर घुटने फुड़वाने के बाद भी समझ नहीं पाते। बहुत से नासमझ ऐसे होते हैं जो नासमझों के सरदार बन जाते हैं और ऐसा सोचने लगते हैं कि वे किसी बड़ी रियासत के महाराजा बन गए हैं। उनकी जय जयकार करने वाले लोग कौन हैं, यह भी वह नहीं समझ पाते। वे व्यर्थ ही गुमान के घोड़े पर सवार होते हैं। कुछ नासमझ ऐसे होते हैं जो सही गलत का निर्णय नहीं कर पाते इसलिए नासमझ कहलाते हैं। वे कोशिश भी नहीं करते। वे सब के साथ होते हैं- आयाराम के साथ भी और गयाराम के साथ भी। ऐसे ढुलमुल प्रवृत्ति वाले कब किसको डुबा दें, पता नहीं चल पाता।
...कौन किसको और क्यों समझा रहा है?
इस उलझन को समझ सको तो समझो दिलवर जानी। ...फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।...
भगत जी - जो अपना है, वो आपको सब मिलेगा
regards
bahut sahi chitran kiya hai aapne
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यह तो नासमझ लोगों की बात है। पर यहां - विशेषत: पूर्वान्चल में छुद्र चोरी को लगता है सार्वजनिक मान्यता है। सार्वजनिक नल-बत्ती उखाड़ लेना कोई स्टिग्मा नहीं रखता - वह अधिक कष्ट-कर है।
बड़ा मुश्किल काम है श्रीकांत जी ! बहुमत और तालियाँ उनके साथ हैं, समझदार लोग आगे नहीं आयेंगे जब वे शिक्षक पर तालियाँ बजायेंगे और बहुमत उनका साथ दे रहा है !
जरूरत है कि शिक्षक आगे आयें ! बहुत अच्छा आलेख है !
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